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________________ (१३) गुर्जर उत्पत्ति कतिपय पश्चिमी विद्वानों के साथ डी. आर. भण्डारकर ने मत प्रकट किया है कि परमार हूणों की एक शाखा थे, जो गुप्त वंश के राज्यकाल में प्रायः ५वीं-६ठी शताब्दियों में मध्य एशिया से भारत में घुस आये थे। इस संबंध में उनके द्वारा प्रस्तुत कुछ तर्क इस प्रकार हैं:--- १. अग्निकुलीय चार वंशों में से प्रतिहार नरेश अपने अभिलेखों में स्वयं को गुर्जर घोषित करते हैं। इस आधार पर भण्डारकर महोदय ने निष्कर्ष निकाला कि ये सभी गुर्जर रहे होंगे (इं. में., भाग ४०, पृष्ठ ३०)। २. चाप वंशीय नरेश, जो गर्जर थे, स्वयं को परमारों की एक शाखा घोषित करते हैं। इस आधार पर परमार भी गुर्जर थे (इं. ऐ., भाग ४, पृष्ठ १४५)। ३. गुर्जर ओसवाल स्वयं को परमार वंशीय बतलाते हैं। अतएव परमार गुर्जर थे (बम्बई गजेटीयर, भाग ९, उपभाग १, पृष्ठ १८५) । उपरोक्त सभी तर्क अत्यन्त सामान्य हैं। प्रथमतः, यह कहना ही गलत है कि चूंकि प्रतिहार वंशीय नरेश स्वयं को गर्जर घोषित करते हैं, इस कारण शेष तीनों राजवंश, अर्थात् परमार, चौलक्य एवं चाहमान भी गर्जर होने चाहिये। साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्य इसके विपरीत हैं। पृथ्वीराज रासो का आधार भी गलत सिद्ध होता है (ई. हि. क्वा. भाग १६, पष्ट ७३८-७४९; दशरथ शर्मा, अर्ली चौहान डायनेस्टीज, अध्याय १)। परमारों के प्रारम्भिक अभिलेख एवं परमार साहित्य इस संबंध में मौन है। द्वितीय, प्रस्तुत संदर्भ में गुर्जर शब्द किसी जाति विशेष को नहीं अपितु प्रदेश को इंगित करता है। गुर्जर देश के सभी निवामो उसके अन्तर्गत आ जाते हैं। भले ही जाति अथवा धर्म कुछ भी रहे हों। चाप वंशीय नरेश कबीले के रूप में गर्जरों से भिन्न थे। यह तथ्य लाट नरेश पुलकेशिन् अवनिजनाश्रय के ७३८-७३९ ईस्त्री के नौसारी अभिलेख से ज्ञात होता है (नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भाग १, पष्ट २११, पादटिप्पणी २; बम्बई गजेटीयर, भाग १. उपभाग १, पृष्ट १०९, पादटिपणी)। राष्ट्रकूट उत्पत्ति डी. सी. गांगुली ने सीयक द्वितीय के हरसोल ताम्रपत्रों (क्र. १ व २) के आधार पर यह प्रतिपादित किया कि परमार नरेश मान्यखेट के राष्ट्रकूटों की संतान थे। परन्तु अभिलेखों के विश्लेषण से उनके द्वारा प्रस्तुत तर्क निर्मूल सिद्ध हो गए हैं। प्रथमतः, यदि परमार नरेश राष्ट्रकूटों की संतान होते तो वे अपने अभिलेखों का प्रारम्भ राष्ट्रकूट वंशीय प्रारम्भिक नरेशों से करते। केवल स्वयं व अपने पिता के समकालीन राष्ट्रकूट नरेशों का ही उल्लेख न किये होते। द्वितीय, संभव है कि सीयक द्वितीय ने अपने विजय अभियान में राष्ट्रकूटों के उक्त अधूरे ताम्रपत्र लूट में प्राप्त किये हों एवं उन पर उत्कीर्ण लेख को मिटाये बगैर ही आगे अपना अभिलेख खुदवा दिया हो। इसी प्रकार गाऊनरी अभिलेख (क्र. ६-७) पर यद्यपि मूलतः राष्ट्रकूट अभिलेख उत्कीर्ण था, परन्तु वाक्पति द्वितीय ने उस को पूर्ण रूप से मिटाये बगैर ही उस पर अपना अभिलेख उत्कीर्ण करवा दिया। तृतीय, वाक्पति द्वितीय ने राष्ट्रकूटों की राजकीय उपाधियां इस कारण धारण की थी कि वह स्वयं को उनकी राजलक्ष्मी का विजेता मानता था । इस प्रकार गांगूली महोदय के मत का पूर्णतः खण्डन हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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