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________________ उज्जैन अभिलेख १३९ १८. जैसा दिये जाने वाला भाग भोग कर हिरण्य आदि, देव ब्राह्मण द्वारा भोगे जा रहे को छोड़ कर, आज्ञा सुन कर सभी उस के लिये १९. देते रहना चाहिये । और इसका समान रूप पुण्यफल जान कर हमारे व अन्य वंशों में उत्पन्न होने वाले भावी भोक्ताओं को हमारे द्वारा दिये जाने वाले इस २०. धर्मदान को मानना व पालन करना चाहिये। और कहा गया है सगर आदि अनेक नरेशों ने वसुधा भोगी है और जब २ यह पृथ्वी जिसके अधिकार में रही है, तब २ उसी को उसका फल मिला है ।।५।। यहां पूर्व के नरेशों ने धर्म व यश हेतू जो दान दिये हैं, वे त्याज्य एवं कै के समान जान कर कौन सज्जन व्यक्ति उसे वापिस लेगा ॥६॥ हमारे उदार कुलक्रम को उदाहरण रूप मानने वालों व अन्यों को इस दान का अनुमोदन करना चाहिये, क्योंकि इस बिजली की चमक और पानी के बुलबुले के समान चंचल लक्ष्मी का वास्तविक फल (इसका) दान करना और (इससे) परयश का पालन करना ही है।।७।। सभी इन होने वाले नरेशों से रामभद्र बार २ याचना करते हैं कि यह सभी नरेशों के लिए समान रूप धर्म का सेतु है ---- ॥८॥ (३०) उज्जैन का उदयादित्य कालीन महाकाल मंदिर नागबंध प्रस्तरखण्ड अभिलेख (तिथि रहित) प्रस्तुत अभिलेख उज्जैन में महाकालेश्वर मंदिर में उत्कीर्ण है। इसका प्रथम उल्लेख प्रो. रि. आ. स. वे. स., जून १९०४, पृष्ठ १६ पर किया गया । फिर ज. ब. बा. रा. ए. सो., भाग २१, पृष्ठ ३५० पर उल्लेख किया गया। इसके बाद भी समय समय पर इसके उल्लेख हुए। के. एन. शास्त्री ने एपि. इं., भाग ३१, पृष्ठ २५-३० पर विवरण छापा । वर्तमान में यह दो भागों में प्राप्त है। प्रथम भाग महाकालेश्वर मंदिर की ऊपरी मंज़िल में एक भित्ती में लगे प्रस्तरखण्ड पर उत्कीर्ण है। इसमें ३६ पंक्तियां खुदी हैं जो बहुत पासपास हैं। दूसरा भाग निचली मंजिल में एक छत्री में लगे प्रस्तर खण्ड पर खुदा है। इसमें ३८ पंक्तियां हैं। यहां कुछ भाग में अभिलेख है। शेष में वर्णमाला है। प्रथम प्रस्तर खण्ड का आकार ५५४४४ सें. मी. है। परन्तु इस पर उत्कीर्ण लेख बहुत जर्जर है। उसको पढ़ना कठिन है। द्वितीय प्रस्तर खण्ड पर वर्णमाला को छोड़ कर उत्कीर्ण लेख का आकार ४४४३६ सें. मी. है। यह अच्छी हालत में है। परन्तु इसका कुछ पत्थर टूट गया है। __ अक्षरों की बनावट ११वीं-१२वीं सदी की नागरी लिपि है। अक्षर प्रायः सुन्दर ढंग से बने हैं। भाषा संस्कत है। नागबंध को छोड कर सारा अभिलेख पद्यमय है। श्लोकों में क्रमांक दिये गये हैं। ये श्लोक क्रमांक ७९ से ८७ तक हैं। श्लोकों के अध्ययन से जान पड़ता है कि इनका रचयिता पदरचना में प्रवीण था। उसकी कल्पनाशक्ति भी अत्यन्त प्रखर थी। व्याकरण के वर्णविन्यास की दृष्टि से ब के स्थान पर व, श के स्थान पर स, स के स्थान पर श का प्रयोग सामान्य रूप से किया गया है। र के बाद का व्यञ्जन दोहरा कर दिया गया है। कुछ अन्य त्रुटियां भी हैं जिनको पाठ में ठीक कर दिया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001130
Book TitleParmaras Abhilekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Mittal, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1979
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Society
File Size9 MB
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