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________________ प्रस्तावना : ४९ प्रतिवादीके द्वारा स्वीकृत प्रमाणादि तत्त्वोंका निराकरण करनेसे परीक्षकोंका विचार तत्त्वोपप्लवकी ओर झुकता है, इसके सिवाय अन्य उपाय नहीं है । उसीको यहाँ स्पष्ट किया जाता है यह बतलाया जाय कि किसोको प्रमाण माननेका प्रयोजक तत्त्व क्या है ? क्या अदृष्ट कारणोंसे उत्पन्न होनेके कारण उसे प्रमाण माना जाय या बाधाओंसे रहित होनेसे या प्रवत्तिमें समर्थ होनेसे या अर्थक्रियाको प्राप्तिमें निमित्त होनेसे ? प्रथम विकल्प तो युक्त नहीं है, क्योंकि उसके निर्दोष कारणोंका प्रत्यक्षसे ग्रहण सम्भव नहीं है, उन कारणोंमें इन्द्रियकी कुशलता आदि भी है, जिसे अतीन्द्रिय स्वीकार किया गया है। अनुमान भी उन निर्दोष कारणोंको जानने में समर्थ नहीं है, क्योंकि उनका अविनाभावी हेतु नहीं है। 'सत्यज्ञान हेतु है' यह कहना सम्यक नहीं है, क्योंकि उसमें अन्योन्याश्रय दोष आता है। ज्ञानकी सत्यता सिद्ध होनेपर उसके निर्दोष कारणोंका निश्चय हो और उनका निश्चय होनेपर ज्ञानकी सत्यता सिद्ध हो । __ दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं है, क्योंकि उसमें दो पक्ष अवतरित होते हैं। प्रथम यह कि क्या कभी, कहीं, किसीके बाधक उत्पन्न न होनेसे ज्ञान प्रमाण होता है अथवा द्वितीय यह कि सब जगह, सब कालमें सभी प्रतिपत्ताओंको बाधकोंकी उत्पत्ति न होनेके कारण ज्ञान प्रमाण सिद्ध होता है ? प्रथम पक्षमें ग्रीष्ममें रेतके समूहमें होनेवाला जलका ज्ञान भी प्रमाण हो जायेगा, क्योंकि दूरवर्ती पुरुषको उस ज्ञानकालमें बाधक उत्पन्न नहीं होते, द्वितीय पक्षमें समस्त देशों, समस्त कालों और समस्त पुरुषोंके बाधकोंका अभाव असर्वज्ञ कैसे जान सकता है, यदि कोई जानता है तो वही सर्वज्ञ हो जायेगा। तीसरा विकल्प भी सम्यक् नहीं है, क्योंकि उसमें इतरेतराश्रय दोष है । कारण कि प्रमाणसे अर्थको उपलब्ध कर उसके लिए होने वाली प्रवृत्ति यदि उस देशमें पहँचना है और उसकी सामर्थ्य फलसे सम्बन्धित होना है अथवा सजातीय ज्ञानको उत्पन्न करना है, तो स्पष्टतया अन्योन्याश्रय अनिवार्य है। ज्ञानकी प्रमाणताका निश्चय होने पर उसके द्वारा अर्थकी प्रतिपत्ति होगी और उसके होनेपर प्रवृत्ति तथा उसकी सामर्थ्य बन सकती है और प्रवृत्तिसामर्थ्यका निश्चय होने पर उसके द्वारा अर्थज्ञानकी प्रमाणताका निर्णय होगा, अन्य उपाय नहीं है और इस तरह अन्योन्याश्रय दोष होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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