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________________ प्रस्तावना : ४५ की परिच्छित्ति प्रत्यक्ष है या अप्रत्यक्ष ? प्रत्यक्ष तो उसे कहा नहीं जा सकता, क्योंकि वह ज्ञानका धर्म है, दूसरे उसकी कर्मरूपसे प्रतीति नहीं होती, जैसे करणरूप ज्ञान । यदि उसकी कर्मरूपसे प्रतीति न होनेपर भी क्रियारूपसे प्रतीति होनेसे वह प्रत्यक्ष है, तो करणरूप ज्ञान कर्मरूपसे प्रतीत न होनेपर भी करणरूपसे प्रतीत होनेसे प्रत्यक्ष हो । यदि कहें कि करणरूपसे प्रतीत करणज्ञान तो करण ही होगा, कर्मरूप प्रत्यक्ष नहीं, तो पदार्थपरिच्छित्ति भी क्रियारूपसे प्रतीत होनेसे क्रियारूप ही है, उसे प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह कर्मरूप नहीं है। यदि कहा जाय कि अर्थपरिच्छित्ति अर्थका धर्म होनेसे प्रत्यक्ष है, तो वह अर्थपरिच्छित्ति अर्थप्राकटय (अर्थप्रकाशन) रूप कही जाती है और अर्थप्राकटय अर्थको ग्रहण करने वाले ज्ञानमें अर्थप्राकटयको स्वीकार न करने पर बन नहीं सकता, अन्यथा अतिप्रसंग आयेगा। स्पष्ट है कि अर्थज्ञान अप्रकट (अप्रकाश) रूप रहे, जो समानान्तरवर्ती है, तो उससे किसी पदार्थका प्रकाशन नहीं हो सकता। प्रमाता आत्मा, जो स्वयं प्रकाशमान है, प्रत्यक्ष है और अर्थपरिच्छेदक है, जब प्रकाशरूप है, तभी वह अर्थपरिच्छित्तिरूप अर्थप्रकाशन करता हआ देखा जाता है। 'परिच्छित्ति, जो परिच्छेदकरूप है, कर्तृस्थ क्रियारूप होनेसे कर्ताका धर्म है, उसे उपचारसे ही अर्थका धर्म कहा जाता है, क्योंकि वास्तव में परिच्छिद्यमानतारूप परिच्छित्ति ही, जो कर्मस्थ क्रियारूप है, अर्थका धर्म है । परिच्छित्तिको करणरूप ज्ञानका धर्म हम स्वीकार करते ही नहीं हैं । 'चक्षुसे देवदत्त रूपको देखता है' इत्यादि स्थानोंमें चक्षुका प्रकाशन न होनेपर भी वह परोक्ष एवं अतीन्द्रिय चक्षु रूपका जैसे प्रकाशन कर देती है उसी प्रकार करणरूप परोक्षज्ञानका प्रकाशन न होने पर भी वह अर्थका प्रकाशन अच्छी तरह कर सकता है। लोकमें अतीन्द्रियको भी करण माना गया है' ऐसा हमारा (मीमांसकोंका) अभिप्राय है, पर उनका यह अभिप्राय अन्ध सर्पके बिलप्रवेशन्यायके अनुसार स्याद्वादियोंके मतका ही समर्थन करता है, क्योंकि स्याद्वादियोंने भी स्वार्थपरिच्छेदक प्रत्यक्ष आत्माको कर्तसाधनरूप ज्ञानशब्दके द्वारा कहा है। स्वार्थज्ञानरूप परिणत स्वतंत्र आत्मा ही ज्ञान है । 'जानातीति ज्ञानमात्मा'-जो जानता है वह ज्ञान है-आत्मा है, इस व्युत्पत्तिके आधारसे कर्तृ साधनमें ज्ञान आत्मारूप ही होता है। मीमांसकोंने जो करणरूप ज्ञानको अतीन्द्रिय कहा है वह भी स्याद्वादियोंने भावेन्द्रियरूपसे, जो उपयोगरूप करण है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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