SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११८ : प्रमाण-परीक्षा सिद्धिकार आ० वादीभसिंहने' उससे प्रेरणा पाकर उक्त अनेकान्तोंकी प्रतिष्ठाके लिए सहानेकान्तसिद्धि और क्रमानेकान्तसिद्धि नामसे दो स्वतन्त्र प्रकरणोंकी सृष्टि स्याद्वादसिद्धि में की है तथा उनका विस्तृत विवेचन किया है। (४) व्यवहार और निश्चय द्वारा वस्तुविवेचन-अध्यात्मके क्षेत्रमें तो व्यवहार और निश्चय द्वारा वस्तुका विवेचन किया ही जाता है, पर तर्कके क्षेत्रमें भी उनके द्वारा वस्तुविवेचन हो सकता है, यह दृष्टि हमें विद्यानन्दसे प्राप्त होती है। उन्होंने इन दोनों नयोंसे अनेक स्थलोंमें वस्तु-विवेचन किया है। 'निष्क्रियाणि च' (त० सू० ५-७) इस सूत्रकी व्याख्या करते हुए वे तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक (पृ० ४०१) में लिखते हैं कि निश्चयनयसे सभी वस्तुएँ कथंचित् निष्क्रिय हैं और व्यवहारनयसे कथंचित सक्रिय हैं । लोकाकाश और धर्मादि द्रव्योंमें आधाराधेयताका विचार करते हुए वे कहते हैं कि व्यवहारनयसे लोकाकाश तथा धर्मादि द्रव्योंमें आधाराधेयता है तथा निश्चयनयसे उनमें उसका अभाव है । उनका तर्क हैं कि निश्चयनयसे प्रत्येक द्रव्य अपनेमें अवस्थित होता है । अन्य द्रव्यकी स्थिति अन्य द्रव्यमें नहीं होती, अन्यथा उनका अपना प्रातिस्विक रूप न रहकर उनमें स्वरूपसांकर्य हो जायेगा । इसी तरह सब द्रव्योंमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यकी व्यवस्था करते हुए वे त० सू० ५-१६ की टीकामें लिखते हैं कि निश्चयनयसे सभी द्रव्योंकी उत्पादादि व्यवस्था विस्रसा (स्वभावतः) है। व्यवहारनयसे उनके उत्पादादिक सहेतुक हैं। अतः व्यवहार और निश्चयनयके स्वरूपको समझकर द्रव्योंकी आधाराधेयता तथा कार्यकारणभावकी व्यवस्था जहाँ जिस नयसे की गयी हो उसे उसी नयसे जानना चाहिए। इस तरह विद्यानन्दका व्यवहार और निश्चय द्वारा दर्शनके क्षेत्रमें वस्तु-विचार भी जैन दर्शनके लिए उनकी एक अन्यतम उपलब्धि हैं। (५) उपादान और निमित्तका विचार-यों तो कारणोंका विचार सभी दर्शनों में है और उनकी विस्तारसे चर्चा की गयी है किन्तु जैन दर्शनमें उनका चिन्तन बहुत सूक्ष्म किया गया है। कार्यकी उत्पत्तिमें कितने कारणोंका व्यापार होता है, इस सम्बन्धमें न्याय तथा वैशेषिक १. स्याद्वादसिद्धि ३-१ से ३-७४ तथा ४-१ से ४-८९ । २. त० श्लो० पृ० ४१०. १३. त० श्लो० पृ० ४१०।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy