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________________ 5 प्रमाणमीमांसायाः [ ४०२८.०८ यशोविजयजी ने ( शास्त्रवा० टी० पृ० २६६ A ) आठ के अलावा अन्य दोषों - श्रात्माश्रय, परस्पराश्रय, चक्रक आदि ६- का भी निर्देश करके उनका निवारण किया है। पृ० २८. पं० ८. 'नैवम् ' - तुलना - प्रमेयक ० पृ० १५६-१५८ । 1 ६६ पृ० २८. पं० ३. 'प्रत्येकं यो' - तुलना - "आह च भेदाभेदोक्तदोषाश्च तयोरिष्टौ कथं न वा । प्रत्येकं ये प्रसज्यन्ते द्वयोर्भावे कथं न ते ।। " - हेतुबि० टी० पृ० १०६ | अ० १ ० १ सू० ३४-४१ पृ० २८ दार्शनिकक्षेत्र में प्रमाण और उसके फल की चर्चा भी एक खास स्थान रखती है । यों तो यह विषय तर्कयुग के पहिले श्रुतिआगम युग में भी विचारप्रदेश में आया है । उपनिषदों, पिटकों और आगमों में ज्ञान10 सम्यग्ज्ञान ----के फल का कथन है । उक्त युग में वैदिक, बौद्ध, जैन सभी परम्परा में ज्ञान का फल विद्यानाश या वस्तुविषयक अधिगम कहा है पर वह आध्यात्मिक दृष्टि से अर्थात मोक्ष लाभ की दृष्टि से । उस अध्यात्म युग में ज्ञान इसी लिए उपादेय समझा जाता था कि उसके द्वारा अविद्या - प्रज्ञान का नाश होकर एवं वस्तु का वास्तविक बोध होकर मन्त में मोक्ष प्राप्त हो, पर तर्कयुग में यह चर्चा व्यावहारिक दृष्टि से भी होने लगी, अतएव 15 हम तर्कयुग में होनेवाली - प्रमाणफलविषयक चर्चा में अध्यात्मयुगीन अलौकिक दृष्टि और तर्कयुगीन लौकिक दृष्टि दोनों पाते हैं२ । लौकिक दृष्टि में केवल इसी भाव को सामने रखकर प्रमाण के फल का विचार किया जाता है कि प्रमाण के द्वारा व्यवहार में साक्षात् क्या सिद्ध होता है, और परम्परा से क्या चाहे अन्त में माचलाभ होता हो या नहीं। क्योंकि लौकिक दृष्टि में मोक्षानधिकारी पुरुषगत प्रमाणों के फल की चर्चा 20 का भी समावेश होता है। 1 तीनों परम्परा की तर्कयुगीन प्रमाणफलविषयक चर्चा में मुख्यतया विचारणीय अंश दो देखे जाते हैं— एक तो फल और प्रमाण का पारस्परिक भेद-प्रभेद और दूसरा फल का स्वरूप । न्याय, वैशेषिक, मीमांसक आदि वैदिक दर्शन फल को प्रमाण से भिन्न ही मानते १ "सोऽविद्याग्रन्थिं विकरतीह सौम्य" - मुण्डको० २.१.१० । सांख्यका० ६७-६८ । उत्त० २८. २, ३ । “ तमेतं वुच्चति यदा च ञात्वा सेो धम्मं सच्चानि अभिसमेत्सति । तदा विज्जूपसमा उपसन्तो चरिस्सति ॥" विसुद्धि० पृ० ५४४ २ “... तत्त्वज्ञानान्निःश्रशेयसम्” -- वै० सू० १. १. ३ । “ तत्त्वज्ञानान्निःश्र ेयसाधिगमः” - न्यायसू० १. १. १. । “यदा सन्निकर्षस्तदा ज्ञानं प्रमितिः, यदा ज्ञानं तदा हानोपादानोपेचाबुद्धयः फलम् ” - न्यायभा० १.१.३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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