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________________ प्रमाण- खण्ड "माया पुत्त जहा नट्ठ जुवाणं पुणरागयं । काई पच्चभिजाणेज्जा पुव्वलिङ्गेण केणई ॥ तं जहा- खत्तरेण वा वण्णेण वा लंछणेण वा मसेण वा तिलएण वा" १४६ तात्पर्य यह है कि पूर्व परिचित किसी लिङ्ग के द्वारा पूर्वपरिचित वस्तु का प्रत्यभिज्ञान करना पूर्ववत् अनुमान है । उपायहृदय नामक बौद्ध ग्रन्थ में भी पूर्ववत् का वैसा ही उदाहरण है "यथा षडङ्ग ुलि सपिडकमूर्धानं बानं दृष्ट्वा पश्चादवृद्ध बहुश्रुतं देवदत्तं दृष्ट्वा षडङ्गलि स्मरणात् सोयमिति पूर्ववत्" पृ० १३ । उपायहृदय के बाद के ग्रन्थों में पूर्ववत् के अन्य दो प्रकार के उदाहरण मिलते हैं । उक्त उदाहरण छोड़ने का कारण यही है कि उक्त उदाहरण सूचित ज्ञान वस्तुतः प्रत्यभिज्ञान है । अतएव प्रत्यभिज्ञान और अनुमान के विषय में जबसे दार्शनिकों ने भेद करना प्रारम्भ किया तबसे पूर्ववत् का उदाहरण बदलना आवश्यक हो गया । इससे यह भी कहा जा सकता है कि अनुयोग में जो विवेचन है वह प्राचीन परम्परानुसारी है | कुछ दार्शनिकों ने कारण से कार्य के अनुमान को और कुछ ने कार्य से कारण के अनुमान को पूर्ववत् माना है यह उनके दिए हुए उदाहरणों से प्रतीत होता है । मेघोन्नति से वृष्टि का अनुमान करना, यह कारण से कार्य का अनुमान है। इसे पूर्ववत् का उदाहरण मानने वाले माठर, वात्स्यायन और गौडपाद हैं । Jain Education International अनुयोगद्वार सूत्र के मत से कारण से कार्य का अनुमान शेषवदनुमान का एक प्रकार है । किन्तु प्रस्तुत उदाहरण का समावेश शेषवद् के 'आश्रयेण' भेद के अन्तर्गत है । वात्स्यायन ने मतान्तर से धूम से वह्नि के अनुमान को भी पूर्ववत् For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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