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________________ प्रस्तावना। इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि व्याख्याविधिका अनुयोगद्वारगतरूप स्थिर होनेमें पर्याप्त समत्र व्यतीत हुआ होगा । यह विधि स्वयं भ० महावीरकी देन है या पूर्ववर्ती ? इस विषयमें इ-नाही निश्चयरूपसे कहा जा सकता है कि पूर्ववर्ती न हो तब भी-उनके समयमें उस विधिका एक निश्चितरूप बनगया था। अनुयोग या व्याख्याके द्वारोंके वर्णनमें नाम, स्थापना द्रव्य और भात्र इन चार निक्षेपोंका वर्णन आता है । यद्यपि नयोंकी तरह निक्षेप भी अनेक हैं तथापि अधिकांशमें उक्त चार निक्षेपोंको ही प्राधान्य दिया गया है "जत्थ य जाणेज्जा निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं। जत्थ वि य न जाणिज्जा चउकं निक्खिवे तत्थ ॥" अनुयोगद्वार ८। ___ अत एव इन्हीं चार निक्षेपोंका उपदेश भगवान् महावीरने दिया होगा ऐसा प्रतीत होता है । अनुयोगद्वारसूत्रमें तो निक्षेपोंके विषयमें पर्याप्त विवेचन है किन्तु वह गणधरकृत नहीं समझा जाता । गणधरकृत अंगोंमेंसे स्थानांग सूत्रमें 'सर्व' के जो प्रकार गिनाये हैं वे सूचित करते हैं कि निक्षेपोंका उपदेश खयं भ० महावीरने दिया होगा- . "चचारि सव्वा पत्ता-नामसव्वप ठवणसम्वए आएससव्वए निरवसेससब्वए" स्थानांग २९९। प्रस्तुत सूत्रमें सर्पके निक्षेप बताये गए हैं । उनमें नाम और स्थापना निक्षेपोंको तो शब्दतः तथा द्रव्य और भावको अर्थतः बताया है। द्रव्यका अर्थ उपचार या अप्रधान होता है और आदेशका अर्थ मी वही है । अत एव 'द्रव्यसर्व' न कह करके 'आदेश सर्व" कहां । सर्व शब्दका तात्पर्याय निरवशेष है । भावनिक्षेप तात्पर्यवाही है । अत एव 'भाव सर्व' कहनेके बजाय 'निरवशेष सर्व' कहा गया है। अत एव निक्षेपोंने भगवान्के मौलिक उपदेशोंमें स्थान पाया है ऐसा कहा जा सकता है। शब्द व्यवहार तो हम करते हैं क्योंकि इसके बिना हमारा काम चलता नहीं । किन्तु कमी ऐसा हो जाता है कि इन्ही शब्दोंके ठीक अर्थको-वक्ताके विवक्षित अर्थको न समझनेसे बडा अनर्थ हो जाता है । इसी अनर्थका निवारण निक्षेपविद्याके द्वारा भगवान् महावीरने किया है । निक्षेपका मतलब है अर्थनिरूपण पद्धति । भगवान् महावीरने शब्दोंके प्रयोगोंको चार प्रकारके अयोंमें विभक्त कर दिया है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । प्रत्येक शब्दका व्युत्पत्तिसिद्ध एक अर्थ होता है किन्तु वक्ता सदा उसी व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थकी विवक्षा करता ही है यह बात व्यवहारमें देखी नहीं जाती। इन्द्रशब्दका व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ कुछ भी हो किन्तु यदि उस अर्थकी उपेक्षा करके जिस किसी वस्तुमें संकेत किया जाय कि यह इन्द्र है तो वहाँ इन्द्र शब्दका प्रयोग किसी व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थके बोधके लिये नहीं किन्तु नाममात्रका निर्देश करनेके लिये हुआ है अत एव वहाँ इन्द्रशब्दका अर्थ नाम इन्द्र है । यह नाम निक्षेप है । इन्द्रकी मूर्तिको जो इन्द्र कहा जाता है वहाँ सिर्फ नाम नहीं किन्तु वह मूर्ति इन्द्रका प्रतिनिधित्व करती १ भद्रबाहु जिनमन और यति अषमके उल्लेखोंसे यह भी प्रतीत होता है कि निक्षेपोंमें 'भादेश' यह एक व्यसे सवा निक्षेप भी था। यदि सूत्रकारको वही अभिप्रेत हो तो प्रस्तुत सूत्रमें द्रव्य निक्षेप उल्लिखित नहीं है ऐसा समझना चाहिए। जयपवळा पृ. २०१। २"पस्तुनोभिधानं स्थितमन्याय समनिरपेई पर्यावानमिषं नाम माइच्छितबा" मनु०टी०पू०११॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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