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________________ १२ स्याद्वादके भंगोंकी विशेषता । रचना करके अज्ञानवादमें ही कर्तव्यकी इतिश्री समझता है तत्र स्याद्वादी भ० महावीर प्रत्येक मंगका स्वीकार करना क्यों आवश्यक है यह बताकर विरोधी भंगोंके स्वीकार के लिये नयवादअपेक्षावादका समर्थन करते हैं। यह तो संभव है कि स्याद्वादके भंगोंकी योजनामें संजयके भंगजालसे भ० महावीरने लाभ उठाया हो किन्तु उन्होंने अपना खातथ्य भी बताया है, यह स्पष्ट ही है। अर्थात् दोनोंका दर्शन दो विरोधी दिशामें प्रवाहित हुआ है। ऋग्वेदसे भ० बुद्ध पर्यन्त जो विचारधारा प्रवाहित हुई है उसका विश्लेषण किया जाय तो प्रतीत होता है कि प्रथम एक पक्ष उपस्थित हुआ जैसे सत् या असत् का । उसके विरोध में विपक्ष उस्थित हुआ असत् या सत्का । तब किसीने इन दो विरोधी भावनाओंको समन्वित करनेकी दृष्टिसे कह दिया कि तत्र न सत् कहा जा सकता है और न असत् - वह तो वक्तव्य है । और किसी दूसरेने दो विरोधी पक्षोंको मिलाकर कह दिया कि वह 1 सदसत् है । वस्तुतः विचारधारा के उपर्युक्त पक्ष, विपक्ष और समन्वय ये तीन क्रमिक सोपान हैं । किन्तु समन्वयपर्यन्त आजानेके बाद फिर से समन्वयको ही एक पक्ष बनाकर विचारधारा आगे चलती है, जिससे समन्वयका भी एक विपक्ष उपस्थित होता है। और फिर नये पक्ष और विपक्षके समन्वयकी आवश्यकता होती है । यही कारण है कि जब वस्तुकी अवताव्यतामें सद् और असत्का समन्वय हुआ तब वह मी एक एकान्त पक्ष बन गया । संसारकी गतिबिधि ही कुछ ऐसी है, मनुष्यका मन ही कुछ ऐसा है कि उसे एकान्त सह्य नहीं । अत एव वस्तुकी ऐकान्तिक अवक्तव्यताके विरुद्ध भी एक विपक्ष उत्थित हुआ कि वस्तु ऐकान्तिक अवक्तव्य नहीं उसका वर्णन भी शक्य है। इसी प्रकार समन्वयवादीने जब वस्तुको सदसत् कहा तब उसका वह समन्वय मी एक पक्ष बन गया और स्वभावतः उसके विरोधमें विपक्षका उत्थान हुआ । अत एव किसीने कहा एक ही वस्तु सदसत् कैसे हो सकती है, उसमें विरोध है। जहाँ विरोध होता है वहाँ संशय उपस्थित होता है । जिस विषयमें संशय हो वहाँ उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता । अत एव मानना यह चाहिए कि वस्तुका सम्यग्ज्ञान नहीं । हम उसे ऐसा भी नहीं कह सकते, वैसा भी नहीं कह सकते । इस संशय या अज्ञानवादका तात्पर्य वस्तुकी अज्ञेयता, अनिर्णेयता, अवाच्यतामें जान पडता है। यदि विरोधी मतका समन्वय एकान्त दृष्टिसे किया जाय तब तो फिर पक्ष-विपक्ष -समन्वयका चक्र अनिवार्य है। इसी चक्रको मेदनेका मार्ग भगवान् महावीरने बताया है। उनके सामने पक्ष-विपक्ष - समन्वय और समन्वयका भी विपक्ष उपस्थित था । यदि वे ऐसा समन्वय करते जो फिर एक पक्षका रूप ले ले तब तो पक्ष-विपक्ष समन्वयके चक्रकी गति नहीं रुकती । इसीसे उन्होंने समन्वयका एक नया मार्ग लिया, जिससे वह समन्वय स्वयं आगे जाकर एक नये विपक्षको अवकाश दे न सके । उनके समन्वयकी विशेषता यह है कि वह समन्वय स्वतन्त्र पक्ष न होकर सभी विरोधी पक्षोंका यथायोग्य संमेलन है । उन्होंने प्रत्येक पक्षके बलाबलकी ओर दृष्टि दी है । यदि वे केवल दौर्बल्यकी ओर ध्यान दे करके समन्वय करते तब सभी पक्षका सुमेल होकर एकत्र संमेलन न होता किन्तु ऐसा समन्वय उपस्थित हो जाता जो किसी एक विपक्षके उत्थानको अवकाश देता । भ० महावीर ऐसे विपक्षका उत्थान नहीं चाहते थे । अतएव उन्होंने प्रत्येक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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