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________________ परमाणुकी नित्यानित्यता। इसी प्रकार अजीव द्रव्योंमें भी एकता-अनेकताके अनेकान्तको भगवानने स्वीकार किया इस बातकी प्रतीति प्रज्ञापनाके अल्पबहुत्व पदसे होती है, जहाँ कि छहों द्रव्योंमें पारस्परिक न्यूनता तुल्यता और अधिकताका विचार किया है । उस प्रसंगमें निम्नवाक्य आया है “गोयमा! सम्वत्थोवे एगे धम्मस्थिकाए दवट्ठयाए, से पेव पएसट्टयाए असंखेनापुणे।""सम्बस्थो पोग्गलस्थिकाए दबटुयाए, से व पएसट्टयाए भलोजगुणे।" महापनापद-३. सू०५६। धर्मास्तिकायको द्रव्यदृष्टिसे एक होनेके कारण सर्वस्तोक कहा और उसी एक धर्मास्तिकायको अपने ही से असंख्यातगुण भी कहा क्यों कि द्रव्य दृष्टिके प्राधान्यसे एक होते हुए मी प्रदेशके प्राधान्यसे धर्मास्तिकाय असंख्यात भी है। यही बात अधर्मास्तिकायको भी लागू की गई है। अर्थात् वह भी द्रव्यदृष्टिसे एक और प्रदेशदृष्टिसे असंख्यात है । आकाश द्रव्यदृष्टिसे एक होते हुए भी अनन्त है क्यों कि उसके प्रदेश अनंत है । संख्या पुद्गल द्रव्य अल्प है जब कि उनके प्रदेश असंख्यातगुण हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जीव और अजीव दोनोंमें अपेक्षाभेदसे एकत्व और अनेकत्वका समन्य करनेका स्पष्ट प्रयक भगवान् महावीरने किया है। इस बनेकान्तमें प्रमतत्वकी ऐकान्तिक निरंशता और एकता तथा बौद्धोंके समुदायवादकी ऐकान्तिक सांशता और अनेकताका समन्वय किया गया है, परन्तु उस जमानेमें एक कोकायत.मत ऐसा मी था जो सबको एक मानता था जब कि दूसरा लोकायत मत सबको एषक पृपक् मानता था। इन दोनों लोकायतोंका समन्वय. मी प्रस्तुत एकता-अनेकताके अनेकान्तवादमें हो तो कोई आश्चर्य नहीं । भगवान् बुद्धने उन दोनों लोकायतोंका अखीकार किमा. है तब भ० महावीरने दोनोंका समन्वय किया हो तो यह खाभाविक है। .. (१०) परमाणुकी नित्यानित्यता सामान्यतया दार्शनिकों में परमाणु शब्दका अर्थ रूपरसादियुक्त परम अपकृष्ट द्रव्यजैसे पृथ्वीपरमाणु आदि-लिया जाता है जो कि जड - अजीव द्रव्य है । परन्तु परमाणु शब्दका अंतिम सूक्ष्मत्व मात्र अर्य लेकर जैनागमोंमें परमाणुके चार मेद भ० महावीरने प्रताये हैं, "गोपमा ! बडब्बिो परमाणू पाते तंजहा-१ दवपरमाणू, २ खेतपरमाणू, काळपरमाणू, भावपरमाण।" भगवती २०.५. अर्थात् परमाणु चार प्रकारके हैं १ द्रध्यपरमाणु २ क्षेत्रपरमाणु ३ कालपरमाणु ४ भावपरमाणु - - .."सवं एकति सोनाक्षण वति एवं डोकावतं ।.........सम्बं धुत्तं ति सोनाक्षण चतुत्य पोकाबापतेरेसाण मोमो सुपगम्म क्षेत्र व्यागतो अम्म.देखेति-अविजापचया चारा..."संयुत्तनिकाय XII. 481 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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