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________________ पर्याय-विचार। तो फिर उनके अनन्त पर्याय कैसे ! नारकादि समी जीवविशेषोंके अनन्त पर्याय ही भगवानने बताए हैं तो इसपरसे यह समझना चाहिए कि प्रस्तुत प्रसंगमें पर्यायोंकी गिनती का आधार बदल गया है । जीवसामान्यके अनन्तपर्यायोंका कथन तिर्यग्सामान्यके पर्याय की दृष्टिसे किया गया है जब कि जीवविशेष नारकादिके अनन्त पर्यायका कथन ऊर्यतासामान्यको लेकर किया गया है ऐसा मानना पडता है। किसी एक नारक के अनन्तपर्याय घटित हो सकते है इस बातका स्पष्टीकरण यों किया गया है "एक नारक दूसरे नारक से द्रन्यकी दृष्टिसे तुल्य है; प्रदेशोंकी अपेक्षासे भी तुल्य है, अवगाहनाकी अपेक्षासे स्यात् चतुःस्थानसे हीन, स्यात् .प, स्यात् चतुःस्वानसे अधिक है। स्थितिकी अपेक्षासे अवगाहनाके समान है; किन्तु श्याम वर्णपर्यायकी अपेक्षासे स्यात् षद्स्थानसे हीन, स्यात् तुल्य, स्यात् षट्स्थानसे अधिक है । इसी प्रकार शेष वर्णपर्याय, दोनों गंध पर्याय, पांचों रस पर्याय, आठों स्पर्श पर्याय, मतिज्ञान और अज्ञानपर्याय, श्रुतज्ञान और अज्ञानपर्याय, अवधि और विभंगपर्याय, चक्षुर्दर्शनपर्याय, अचक्षुर्दर्शनपर्याय, अवधिदर्शनपर्याय-इन समी पर्यायोंकी अपेक्षासे स्यात् षट्स्थान पतित हीन है, स्यात् तुल्य है, स्यात् षट्सान पतित अधिक है। इसी लिये नारक के अनन्त पर्याय कहे जाते हैं।" प्रज्ञापना पद ५। कहनेका तात्पर्य यह है कि एक नारक जीव द्रव्यकी दृष्टिसे दूसरेके समान है । दोनोंके आत्म प्रदेश मी असंख्यात होनेसे समान है अत एव उस दृष्टि से मी दोनोंमें कोई विशेषता नहीं। एक नारकका शरीर दूसरे नारकसे छोटा भी हो सकता है और बडा मी हो सकता है और समान भी हो सकता है । यदि शरीरमें असमानता हो तो उसके प्रकार असंख्यात हो सकते हैं क्यों कि अवगाहना सर्व जघन्य हो तो अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण होगी । क्रमशः एक एक भागकी वृद्धिसे उत्कृष्ट ५०० धनुष प्रमाण तक पहुँचती है । उतनेमें असंख्यात प्रकार होंगे। इसलिये अवगाहनाकी दृष्टिसे नारकके असंख्यात प्रकार हो सकते हैं । यही बात आयुके विषयमें मी कही जा सकती है । किन्तु नारकके जो अनन्त पर्याय कहे जाते हैं उसका कारण तो दूसरा ही है । वर्ण-गंध-रस-स्पर्श ये वस्तुतः पुद्गलके गुण हैं किन्तु संसारी अवस्थामें शरीररूप पुद्गलका आत्मासे अभेद माना जाता है । अतएव यदि वर्णादिको मी नारकके पर्याय मानकर सोचा जाय, तथा मतिज्ञानादि जो कि आत्माके गुण हैं उनकी दृष्टिसे सोचा जाय तब नारकके अनन्तपर्याय सिद्ध होते हैं । इसका कारण यह है कि किसी भी गुणके अनन्त मेद माने गये हैं । जैसे कोई एक गुण श्याम हो दूसरा द्विगुण श्याम हो तीसरा त्रिगुण श्याम हो यावत् अनन्तवाँ अनन्तगुणश्याम हो इसी प्रकार शेष वर्ण और गंधादिके विषयमें मी घटाया जा सकता है। इसी प्रकार आत्माके ज्ञानादि गुणकी तरतमताकी मात्राओंका विचार करके मी अनन्तप्रकारताकी उपपत्ति की जाती है । अब प्रश्न यह है कि नारक जीव तो असंख्यात ही हैं तब उनमें वर्णादिको लेकर एककालमें अनन्त प्रकार कैसे घटाये जायें । इसी प्रश्नका उत्तर देनेके लिये कालभेदको बीचमें लाना पडता है । अर्याद कालमेदसे नारकोमें ये अनन्तप्रकार घट सकते हैं । कालभेद ही तो ऊर्ध्वतासामान्याश्रित पर्यायोंके विचारमें मुख्य आधार है । एक जीव कालभेदसे जिन नाना पर्यायोंको धारण करता है उन्हें ऊर्ध्वतासामान्याश्रित पर्याय समझना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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