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________________ [प. ९४.५०:२१ मागनेकाले सत्रान्ति कों का वर्णन (प्रमाणवा० २.३०१-३१९ ) हुवा है। इससे पता चलता है कि उनके मतमें एक ज्ञानके कस्पित दो अंश' प्रमाण और प्रमिति सपसे व्यवहत होते हैं । अत एव प्रमाण और फलका अभेद ही है । यही .बाल. म्यापविन्दुमें भी कही गई है। - सौत्रान्ति कों का कहना है कि ज्ञान यबपि अनेक कारणोंसे उत्पन्न होता है, किन्तु उसका सारूप्य चक्षुरादिसे न होकर. अर्यसे ही होता है । जैसे पुत्र मातापितादि अनेक कारणोंसे उत्पन्न होनेपर भी माता या पिताके ही. आकारको धारण करता है, इसी प्रकार अनेक कारणोंसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान मी आलम्बन प्रत्ययके आकारका सेता है। यही अकार विषयव्यवस्थापक होता है । अर्थात् प्रतीतिको किसी एक विषय नियत करनेके लिये यही आकार साधकतम है अत एव यही आकार प्रमाण है। सौत्रान्ति कों का कहना है कि यह आकार ज्ञान अर्थात् प्रतीतिसे मिल नहीं है। एक ही ज्ञान व्यावृत्तिके मेदसे प्रमाण और फल कहा जाता है। नै या यि का दि की तरह सौ त्रान्तिकों को प्रमाण और फलमें जन्यजनकभाव-कार्यकारणभाष इष्ट नहीं है किन्तु व्यवस्थाप्य: व्यवस्थापकभाव इष्ट होनेसे एक ही वस्तुमें प्रमाण और फलका अभेद माननेमें कोई विरोध नहीं । एक ही बुद्धि या ज्ञान अनाकारल्याच होनेसे प्रमाण और वही अनधिगतिव्यावर होनेसे प्रमिति है। सौत्रान्ति कों के इस आकारवादका खण्डन समी दार्शनिकोंने किया है। खयं धर्म कीतिने मी वह आकार अर्थजन्य नहीं किन्तु वासनाकृत है ऐसा स्थापित करनेके लिये बाह्य वस्तुके आकारका संभव ज्ञानमें नहीं ऐसा स्थापित किया है-श्लोकवा० १.७९ । शास्त्रदी० पृ. ५५ । प्रमाणवा० २.३२० । तत्त्वो० पृ० ५२। व्यो० पृ० ५२८ । न्यायमं० वि० पृ० ५४३ । अष्टस० पृ० ११८,१३५,२४० । तत्त्वार्थश्लो० पृ० १२६,१६९ । सन्मीत. टी० पु० २५६,४६० । प्रमेयक० पृ० १३० । न्यायकु० पृ० १६७ । प्रमाणन० ४.४७ । ...प्रमाणवा०२.३१५। २. वही०२.३०७ ।.. "देष. प्र ज्ञानं प्रमाणपस् अतीविरूपत्वाव । अर्थसाकप्यमय प्रमाणम्, वावर्षप्रवीतिसि।" न्यायवि०पू०२५-२६ । १. "अर्येन घटवलेनी महिमुस्वार्थरूपताम् । अन्य स्खमेदाज्हानस मेदकोरियन।१०५॥ वसाद प्रमेवाधिगते साधन मेयरूपता॥३०६॥" प्रमाणवा०२ । तस्वस० का० १३४४ । "सर्वमेव हि विज्ञान विषयेभ्यः समुनवत् । बदन्यखापि हेतुस्खे कपडिविषयाकृति ॥८॥पचाहारकागत्वेऽपत्यजन्मनि । पित्रोखदेकरयाकार धचे मान्य कखपित् ॥१९॥ देवेन स्वेपि वदयविषये मवम् । विषयत्वं वदंशेन वदभावेन बनवेत्॥ १.०॥" प्रमाणचा०२॥ प्रमाणवा० २.३०७,३१५,३१८ । “अधिगविज्ञानात्मभूतविशेषखालंचपोस्तु सपखान अपलापकमाव पनिवज उभयोरपि ज्ञानवरूपाप्मत्वात् ।" मनो०२.३०५ । "मास्त्वाकार्यकारमात्मका' क्रियाकरणमावः किन्तु व्यवस्थाप्यव्यवस्थापकभावः । स . वादात्म्येपि अविस्वः ।" वही २.३१५। १. "अनाकारच्यावृत्तिः प्रमाणम् । अनधिगतिव्यावृत्तिा फकम् ।" वही २.३१८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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