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________________ २५८ टिप्पणानि । [ ४० ८१. पं० १ पर्याय स्वयं उत्पन्न होते हैं । न्यायादि सम्मत सामान्य व्यापक है जब कि जैनसम्मत सामान्य अव्यापक है । क्योंकि सदृशपरिणाम व्यक्ति व पर्यायरूप होनेसे उनसे अभिन्न है । सामान्यकी अनेकता, अनित्यता, अव्यापकता, व्यक्त्यमिन्नता जैनदर्शन में एकान्तरूपसे इष्ट नहीं है क्योंकि दूसरोंके एकान्तको निरस्त करनेके लिए ही उसने अनेकता आदिको सिद्ध किया है । अत एव एकाकारपरामर्शका कारण सदृशपरिणाम कथचिदेकानेक, कमशिद निवानित्व, कथश्चिद् सर्वगतासर्वगत और व्यक्तिसे कथञ्चिद्भिन्नाभिन्न रूप ही अनेकान्तदृष्टि फलित होता है । सामान्यके ऐसे स्वरूपका वर्णन तो मी मां स क करते हैं; किंतु सामान्यके वैसे वर्णनमें उनकी निष्ठा नहीं । क्योंकि वे उस अनेकान्तवादी वर्णनके साथ एकान्तवादको भी मिला देते हैं और अपने पक्षको निश्चित नही कर पाते । बौद्धों ने उपादानोपादेयभावके स्थान में प्रतीत्यसमुत्पादबाद स्वीकार करके वस्तुको एकान्तरूपसे क्षणिक सिद्ध किया है । जैनोंका मार्ग उसके ठीक विपरीत है। जैन दर्शनमें द्रव्यको ऊर्ध्वतासामान्य कह कर उसे नित्य, ध्रुव, स्थिर कहा है, जिसका तात्पर्य अम्वयिपर्यायप्रवाहके अविच्छेदमें है नहीं कि कूटस्थनित्यतामें । जैन सम्मत द्रव्य या ऊर्ध्वतासामान्यकी व्याख्या सांख्यसम्मत प्रकृतिके स्वरूपमें बराबर लागू होती है । अनेकान्तवादी जैनदर्शनकी तो व्याप्ति यही है कि जो प्रमेय होगा वह अनेकान्तात्मक होगा । इस न्यायसे द्रव्य मात्र निम्मानिम फलित होता है । वेदान्त और भर्तृहरि सम्मत ब्रह्म और शब्दसे जैन सम्मत द्रव्यका यही मुख्य भेद है। कि जैनदर्शनानुसार द्रव्यके कार्य मायिक या आविद्यक नहीं, किंतु जैसी सत्यता द्रव्यकी वैसी ही कार्योंकी है, दोनों सच हैं मिथ्या एक भी नहीं हैं जब कि ब्रह्म और शब्दका प्रपच मायिक है आवियक है। एक सच है और दूसरा मिथ्या । यह भी मेद है कि ब्रह्म और शब्द एकान्त निष्म और व्यापक 'जब कि जैनसम्मत द्रव्य कयंचिद् वैसा है । वैशेषिक और नैयायिक सम्मत समवायिकारण ही जैनदृष्टिसे ऊर्ध्वता सामान्य है । न्यायवैशेषिकके मतानुसार आकाश, काल, दिग्, आत्मा और मन ये पाँच एकान्त निष्म ही हैं जब कि पार्थिवादि कार्य - अवयवी अनित्य हैं । परन्तु उनके मतमें कोई भी द्रव्य जैनमतकी तरह नित्यानित्य नहीं है । और न जैनमतकी तरह कार्य तथा समवायिकारणके बीच कयंचिद्भेदाभेद है । जैन दर्शनने सामान्य को ऐसा माना है कि जिससे बौद्धोंके द्वारा दिये गये सब दोषोंका निवारण हो जाता है। वस्तुतः देखा जाय तो सामान्यको तब तक ही दूषित किया जा सकता है जब तक उसकी सिद्धिमें एकान्तवादका आश्रय लिया जाता है। अनेकान्तवाद तो सर्वदोषभक्षी है अत एव अनेकान्तवादका आश्रयण करके सामान्यके स्वरूपका जो निर्णय किया जाता है उसमें दोषको अवकाश नहीं रहता । इस बातको विबानन्द ने क्षतिसंक्षिप्तमें बडे सुंदर ढंगसे कहा है - तत्त्वार्थश्लो० पृ० ९९ । १. "स्वकारणादेव हि वासरूपत्वं यत् तथाविधां 'बुद्धिमुत्पादयति" न्यायकु० पृ० २८६ ] ९. तस्वार्थ लोक० पृ० ९९-१०० । प्रमेयक० ४.३-६ । स्याद्वावर ५३-५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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