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________________ २४८ टिप्पणानि। [पृ० ७७. पं० १२प्रशस्त पादने खमका लक्षण इस प्रकार किया है- "उपरतेन्द्रियप्रामस्य प्रलीनमनएकस्येन्द्रियबारेणैव यदनुभवनं मानसं तत् खमज्ञानम् ।"..."प्रशस्त० पृ० ५४८ । प्रशस्त पादने भी खमको मानसप्रत्यक्षमें ही गिना है किन्तु वह उनके मतमें अप्रमाण ही है क्योंकि उसका परिगणन उन्होंने अविषामें किया है- पृ० ५२० । के शव मिश्र के कथनानुसार सभी-खमज्ञान अयथार्थ ही होते हैं और मानसप्रत्यक्ष नहीं किन्तु स्मृतिरूप हैं । - "सने तु सर्पमेष सानं स्मरणमयथार्थ च ।" तर्कभाषा० पृ० ३० । पृ० ७७. पं० १२. 'स्वसंवेदन' मानसप्रत्यक्ष मात्र खसंवेदन ही है- शान्त्या चार्य ने अपने इस मतकी पुष्टि करनेके लिये स्मृतिको अप्रमाण बतलाया या उसके पृथक् प्रामाण्यका ही निरास किया । ऊहको संशयविशेष बता दिया, प्रत्यक्ष और अनुमानके फलभूत अवायका अन्तर्भाव उन्हीं दोमें कर दिया । प्रातिभ और स्वमज्ञानके प्रामाण्यका ही अखीकार कर दिया। तथा अन्तमें मन की पृथक् सत्ता न मानकर मानसज्ञान( जो सुखादि संवेदनरूप है)का निरास कर दिया। इस प्रकार अन्य आचार्योंको मानसप्रत्यक्षरूपसे जो जो ज्ञान स्वीकृत थे उन सभीका निरास करके शान्त्या चार्य ने स्वसंमत खसंवेदनको ही मानसप्रत्यक्ष माना । शान्त्या चार्य की यह मान्यता अपूर्व है। इस विषयमें किसी जैन-जै ने तर दार्शनिककी संमति हो ऐसा अभी तक देखनेमें नहीं आया । ऐसी अपूर्व मान्यताको सिद्ध करनेके लिए उन्होंने जिन विषयोंमें जैन दार्शनिकोंकी अधिकांश संमति थी उनका भी निरास किया । अन्यथा वे बता सकते थे कि स्मृति प्रत्यक्ष नहीं किन्तु परोक्षज्ञान है । किन्तु सर्व जैनदार्शनिक संमत स्मृतिका पृथक् प्रामाण्य निषिद्ध करके उन्होंने इस विषयमें नै या यि क और बौद्धा दि दार्शनिकों का साथ दिया । ऐसा करके उन्होंने अपना नैयायिकत्व ही जाहीर करना चाहा हो तो कोई पाश्चर्य की बात नहीं। यही बात ऊहके विषयमें भी है। ऊह यदि ईहा अर्थमें लिया जाथ तब वह जैनाचा यों को सर्वसंमतिसे प्रमाण ही है । वे संशय और ईहामें भेदका समर्थन करते हैं। ईहाको संशयविशेष नहीं कहते । ऊहका अर्थ यदि नै यायिक संमत तर्क लिया जाय तब भी वह संशय तो है ही नहीं । इन्द्रियज अवायको या अनुमानके अवयवभूत निगमनरूप अवायको प्रत्यक्ष या अनुमानमें अन्तर्भूत किया जा सकता है किन्तु मनोजन्य अवाय जो आगममें तथा अन्य जैनदार्शनिक प्रन्योंमें वर्णित है उसकी क्या गति होगी ! इस विषयमें शान्त्या चार्य सर्वथा मौन हैं। दूसरोंने जैसा मन माना है वैसा न हो, किन्तु जैनों ने जैसा माना है तथा उन्होंने स्वयं जैसा खीकार किया है वैसे मनका तो अस्तित्व मानना ही चाहिए । अन्यथा मुखादिसंवेदनको किस ज्ञानमें उनके मतानुसार अन्तर्भूत किया जायगा । सुखादिसंवेदन इन्द्रियप्रत्यक्ष तो है ही नहीं और शान्त्या चार्य के मतानुसार मानसप्रत्यक्षमें मात्र खसंवेदन है-ऐसी स्थितिमें सुखादिसंवेदन जिसे सभीने मानस माना है उसकी गति क्या होगी। प्रातिमकी चर्चा में उसके प्रामाण्यको सिर्फ मी मां स क नहीं मानते यह पूर्व टिप्पणमें कहा गया हैमीमांसकको सर्वन नहीं मानना है अत एव वह प्रातिभ जैसे ज्ञानोंको अप्रमाण कह सकता है किन्तु शान्त्या चार्य जैसे जैनाचार्य भी-अव्यभिचारि प्रातिभज्ञानके प्रामाण्यका १."विषयेषु प्रत्यक्षाकारं समज्ञानमुत्पचते।" प्रशस्त० पृ०५४८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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