SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 415
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ टिप्पणानि। [पृ० ६२. पं०६ सिंहकार जयराशि चार्वाक हो कर भी प्रत्यक्षको भी प्रमाण नहीं मानता । तब उनके मसमें उपमानके प्रामाण्यका प्रश्न ही नहीं । उनका कहना है कि 'जब प्रत्यक्ष ही प्रमाण नहीं लब प्रत्यक्षमूलक उपमान कैसे प्रमाण हो सकता है। उन्होंने मी बौद्धों की तरह कहा है कि सादृश्यरूप विषय ही सिद्ध नहीं तब उपमान प्रमेयहीन हो कर प्रमाण कैसे हो सकता है :तत्त्वो० पृ० ११०। श्रीहर्ष ने भी तत्त्वोपप्लव और माध्य मि कों का अनुसरण करके प्रत्यक्षादि सभी का प्रामाण्य खंडित किया है अत एव उनके मतमें भी उपमानका प्रामाण्य नहीं-खण्डन० प्रथमपरि०। जयन्त ने मीमांस क संमत उपमानका अन्तर्भाव स्मृतिमें किया है और इस प्रकार उसका अप्रामाण्य सिद्ध किया है । उनका कहना है कि गवयको देखकर प्रतीति यह होती है कि अनेन सदृशो गौः मया नगरे दृष्टः' और यह प्रतीति स्पष्टतया स्मृति है- न्यायमं० वि० पृ० १४७। __ अकलं का दि अन्य सभी जैनाचार्यों ने उपमानको प्रत्यभिज्ञाके अन्तर्गत माना है-इस बातको आगे कहा जायगा । किन्तु न्या या वतार मूलमें तीन ही प्रमाण प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम माने गये हैं। उपमानके विषयमें मूलमें कुछ भी नहीं कहा गया है । शान्त्या चार्य ने अपने प्रस्तुत वार्तिकमें अन्य जै ना चा यों का अनुसरण न करके बौद्धों की तरह उन्हीके शब्दोंमें उपमानको अप्रमाण ही सिद्ध किया और अन्य जै ना चार्य संमत उसका प्रत्यभिज्ञामें अन्तर्भाव मी मान्य नहीं रखा । यह उनका मूल न्या या व तार का समर्थन कहा जा सकता है किन्तु इससे अपने समय तक हुए समग्र जैन न्यायके विकास की उपेक्षा मी फलित होती है। प्रस्तुत प्रसंगके अतिरिक्त इसी वार्तिकमें अन्यत्र भी उन्होंने उपमानके प्रामाण्यका निरास किया है- देखो पृ० ५८. पं० ३३ । प्रस्तुत प्रसंगमें एक और बात भी जानने योग्य है वह यह कि शान्त्या चार्य ने उपमानको तो अप्रमाण ही कहा किन्तु जिस प्रत्यभिज्ञानमें दूसरे जैनाचा यों ने उपमानका अन्तर्भाव किया है उसे तो प्रमाण ही माना है। दूसरे जैनाचा यों ने प्रत्यभिज्ञाको स्वतन्त्र परोक्ष प्रमाण माना है तब शान्त्या चार्य ने प्रत्यभिज्ञाको नै या यि का दि की तरह प्रत्यक्ष ही माना है'। (आ) अब उपमानके अन्तर्भावके विषयमें विचार करना क्रमप्राप्त है । जो दार्शनिक उपमानको प्रमाण तो मानते हैं किन्तु पृथक् प्रमाण माननेसे इनकार करते हैं वे उपमानका खाभिमत किसी न किसी प्रमाणमें अन्तर्भाव कर लेते हैं । उपमानके अन्तर्भावके विषयमें निम्रलिखित मत पाये जाते हैं - (१) आगममें अन्तर्भाव । (२) अनुमानमें अन्तर्भाव । .. "प्रत्यक्षमूमुपमानम् । वदपगमे वसाप्यपगमात् ।" तस्वो०पू०११०। बार्तिक पू०९२. पं१८॥ १.देखो, प्रस्तुत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy