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________________ पू० ६१. पं० ४.] टिप्पणानि । २१७ पृ० ६१. पं० ४. 'तनिमित्तम् ' प्रमाणमेदका नियामक तत्व क्या है इस विषय में दार्शनिकों में निम्नलिखित नाना मत प्रचलित हैं जिनका विवेचन यहाँ संक्षेपसे किया जाता है - १ बौद्ध तथा कुछ जैमाचार्यसंमत विषयभेद । २ मीमांसकसम्मत सामग्रीमेद आदि । ३ नैयायिकसम्मत विषय, सामग्री और फलभेद । ४ जैमदार्शनिकसम्मत लक्षणभेद । 1 १ - प्रमेय दो हैं - प्रत्यक्ष और परोक्ष अर्थात् स्खलक्षण और सामान्य । अत एव प्रमाण भी दो हैं - प्रत्यक्ष और परोक्ष । परोक्ष प्रमाण सिर्फ अनुमान है । इस बौद्ध मतका विस्तार से विवेचन पूर्व की टिप्पणीमें हो चूका है। इससे स्पष्ट है कि बौद्धोंने प्रमाणभेदका नियामक तत्व प्रमेयभेदको ही माना है । बौद्ध प्रमाणसंप्लवन मान कर प्रमाणविप्लव मानते हैं - यह भी कहा जा चुका है । विप्लववाद के समर्थन में एक युक्ति यह भी है कि प्रत्यक्षके विषय स्खलक्षण में अनुमान शाब्दादि किसी परोक्ष प्रमाणकी प्रवृत्ति मानना नहीं चाहिए क्योंकि ऐसा होनेपर बुद्धिमेद नहीं घट सकेगा । अर्थात् अनुमान और शाब्द बुद्धि भी प्रत्यक्ष जैसी ही होगी क्योंकि विषयभेद नहीं है । अनुमान और प्रत्यक्षबुद्धिमें भेद तो स्पष्ट है अत एव विषयभेद मानना चाहिए। और उसीके कारण प्रमाणमें भेद हुआ है यह मानना चाहिए' । इसी बात का समर्थन भर्तृहरि ने भी किया है - "अन्यथैवाग्निसंबन्धाद् दाहं दग्धोऽभिमन्यते । अन्यथा दाहशब्देन दाहार्थः संप्रतीयते ॥” वाक्य० २.४२५ । बौद्ध विद्वान् प्रमेयभेदके आधार पर प्रमाणका भेद माने यह तो समझमें आ सकता क्योंकि उस बात की संगति बौद्ध सम्मत क्षणिकवाद, प्रमाणविप्लव, खलक्षण और सामान्य की कल्पना आदि अन्य सिद्धान्तोंसे हो जाती है किन्तु जैन दार्शनिक शान्त्या चार्य जो प्रस्तुत ग्रन्थके प्रणेता हैं और प्र मा लक्ष्मकार जिनेश्वर ये दोनों जब उसी बात को मानें तब उसकी संगति जैन दर्शनसंमत अन्य सिद्धान्तोंसे कैसे करना यह एक समस्या है। यह समस्या और मी जटिल हो जाती है जब हम देखते हैं कि अन्य सभी जैन दार्शनिक लक्षणभेदको ही प्रमाणभेदका नियामक मानते हैं और विषयके भेदसे प्रमाणभेद नहीं माना जासकता - यह दृढतापूर्वक सिद्ध करते हैं । Jain Education International इस विषय में शान्त्या चार्य का स्पष्टीकरण क्या है उसे देखना चाहिए और उसका जैन सिद्धान्त के साथ मेल बैठता है या नहीं इसकी विवेचना करनी चाहिए । अन्य जैन दार्शनिक प्रमाणोंके विषयरूपसे एक ही द्रव्यपर्यायात्मकवस्तुको मानते हैं । इस बातको स्वीकार करते हुए भी शान्त्या चार्य का कहना है कि एक ही प्रमेय प्रमाताकी अपेक्षासे द्विविध हो जाता १. " तदाहुः - समानविषयत्वे च जायते सशी मतिः । न चाध्यक्षधिया साम्यमेति शब्दानुमानभीः ॥" न्यायमं० पृ० ३१ । "आह च - अन्यदेवेन्द्रियग्राह्यं अन्यः शब्दस्य गोचरः । शब्दात् प्रत्येति भिन्नाक्षो न तु प्रत्यक्षमीक्षते ॥” न्यायमं० पृ० ३१ । ये दोनों कारिकायें अन्यत्र भी उद्धृत हैं। म्या० २८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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