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________________ २०० दिपणानि। [४० ४१. पं० ११पं० पृ० २०० । “स्यादेतत्-पाण्यादावेकसिलवयवे कम्पमाने नावयविनः कम्पकपमा भ्युपेयम् । अवयष एव हि तदा क्रियावान् श्यते । न चेदं मन्तव्यम् । अवयवे क्रियावति तदाधेयेन अवयविनापि क्रियावता भवितव्यम् । यथा रथे वळति तदाकदोऽपि चल. तीति ।” अवय० पृ० ८२। पृ० ४१. पं० १३. 'भूयोऽवयव - तुलना- "भूयोऽषयवेन्द्रियसभिकर्षानुगृहीतेनाव. यवेन्द्रियसभिकर्षण प्रहणात् ।" व्यो० पृ० ४६ । अवय० पृ० ८५,८७ । पृ० ४१. पं० १६. 'न च' प्रस्तुत पंक्तिमें 'प्रतिभासेप्यव्यव' के स्थानमें 'प्रतिभासेपि व्यव'-ऐसा संशोधन उपस्थित किया है वह पूर्वापरसंदर्भ की दृष्टिसे ही समजना चाहिए। शान्त्या चार्थने दलील की है कि व्यवहित अवयथीको भी यदि जाना जाय तब तत्संलम अन्य भी जाना जा सकता है और इस प्रकार सबको सभी अवयवीका ज्ञान हो जायगा । यह दलील शान्या चार्य की ही होना चाहिए । इस दलीलको ध्यानमें रखें तो 'व्यवहित' पाठ ही ठीक जंचता है, 'अव्यवहित' नहीं। सन्म ति त के टी का में प्रस्तुत प्रसंगमें 'अव्यवहित' ही पाठ है । और वहाँ वह संगत है। सन्मति० टी० पृ० १०४ पं० ३। उपर्युक्त शान्त्याचार्यकृत दलील सन्मतिमें नहीं है। पृ० ४१. पं० २४. 'प्रवृत्तेरिति' यहाँ तक शान्त्या चार्य ने यह सिद्ध किया है कि अवयवीका ग्रहण प्रत्यक्ष या स्मृतिसे नहीं हो सकता है । अवयवीके अग्रहणका समर्थन सन्म ति तर्क टी का में (पृ० १०३-१०५) विस्तारसे है । प्रस्तुतमें वस्तुतः अवयवीका अग्रहण अभय देव ने बौद्ध मतानुसार समर्थित किया है। और तदनुगामी शान्त्या चार्य ने भी वैसा ही किया। किन्तु जैन दृष्टिसे अवयवीका ग्रहण होता है कि नहीं, होता है तो किस प्रमाणसेइस प्रश्नका उत्तर प्रस्तुतमें न तो अभ य दे व ने दिया है और न शान्त्या चार्य ने । दोनोंको ईश्वरसाधक कार्यत्व हेतुका खण्डन करना ही अभीष्ट है । अवयवीका विचार इसी प्रसंगमें है अत एव बौद्ध नयका आश्रयण करके नै या यि क संमत अवयवीके खण्डनसे ही दोनोंका उद्देश सिद्ध हो गया । इसीसे प्रस्तुतमें जैन दृष्टि से अवयवीके स्वरूप और ग्रहणका विचार दोनोंने नहीं किया। अवयवीके ग्रहणके विषयमें जैन दृष्टिसे प्रभा चन्द्र ने यह कहा है - "प्रत्यक्षस्मरणादिसहायेन आत्मना अर्वापरभागभाव्यवयवव्यापकत्व(१)स्य अवयविनो प्रहणोपपत्तेन हि अस्माभिः प्रत्यक्षादिक्षानपर्याय एव अर्थग्राहकोऽभिप्रेतः येनायं दोषः स्यात्, किन्तर्हि ? तत्परिणत आत्मा।" न्यायकु० पृ० २३५ । अवयवीमें बौद्धों में विरुद्धधर्मसंसर्गके कारण भेद सिद्ध किया है । जैन दृष्टिसे प्रभा चन्द्र ने उसमें संशोधन यह किया है कि वह भेद कथंचित् माना जाय ऐकान्तिक नहीं । क्योंकि जैन दृष्टिसे अवयवी निरंश नहीं-न्यायकु० पृ० २३५ । प्रभा चन्द्र का कहना है कि अवयवी रूपाद्यात्मक भी है । और उसकी सिद्धि प्रत्यभिज्ञा प्रमाणसे होती है । अवयवी अवयवोंसे कथंचिदभिन्न है, वास्तव है और एकानेकखभाव हैन्यायकु० पृ० २३६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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