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________________ पृ० २३. पं० १४] टिप्पणानि । १६३ शुक्तिकांशका दर्शन होने पर रजतज्ञान निवृत्त हो जाता है । इस प्रकार रामा नु ज के मतानुसार व्यवहारमें रजतप्रत्यय बाध्य होनेसे भ्रम कहा जाता है पर वस्तुतः वह यथार्थ ही है । रामानुजने सांख्यो की तरह सब वस्तुओंकी सर्वत्र सत्ता मानी है अत एव उनके मतानुसार परमार्थतः समी ज्ञान यथार्थ ही होते हैं। खनादिज्ञानों में अन्य दार्शनिक जब विषयका अत्यन्ताभाव मानते हैं तब रामानुज मानते हैं कि उन ज्ञानोंमें मी जीवके पापपुण्यके कारण ईश्वर तत्तत्कालभावी पदार्थोकी रचना कर देता है "यथार्थ सर्वविज्ञान मिति वेदविदां मतम् । श्रुतिस्मृतिभ्यः सवस्य सर्वात्मत्वप्रतीतितः" ॥ "शुफ्त्यादौ रजतादेव भावः श्रुत्यैष चोदितः । सप्यशुक्त्यादिनिर्देशमेदो भूयस्त्वहेतुकः ॥ रुप्यादिसहशश्चायं शुक्त्यादिरूपलभ्यते । अतस्तस्यात्र सद्भाव प्रतीतेरपि निश्चितः॥ कदाचिचक्षुरादेस्तु दोषाच्छुक्त्यंशवर्जितः । रजतांशो गृहीतोऽतो रजतार्थी प्रवर्तते ॥ दोषहानौ तु शुक्त्यंशे गृहीते तन्निवर्तते । अतो यथार्थ सप्यादिविज्ञानं शुक्तिकादिषु ॥ बाध्यबाधकभावोपि भूयस्त्वेनोपपद्यते । शुक्तिभूयस्त्ववैकल्यसाकल्यप्रहरूपतः॥नातो मिथ्यार्थसत्यार्थविषयत्वनिबन्धनः । एवं सर्वस्य सर्वत्वे व्यवहारव्यवस्थितिः॥ खमे च प्राणिनां पुण्यपापानुगुणं भगवतैव तत्तत्पुरुषमात्रानभाव्याः तत्तत्कालावसानास्तथाभूताचार्थाः सृज्यन्ते ॥" श्रीभाष्य १.१.१. । (४) योगाचारसंमत आत्मख्याति । विज्ञान वा दी बौद्धोंने भ्रम दो प्रकारका माना है । एक मुख्य भ्रम और दूसरा प्रातिभासिक भ्रम । व्यवहारमें हमारी इन्द्रियोंकी जितनी शक्ति है उसके अनुसार ही, उसकी मर्यादामें ही रहकर हम समी अपने संवादि ज्ञानोंको प्रमाण-अभ्रान्त मानकर प्रवृत्त होते हैं । यद्यपि ये हमारे समी ऐन्द्रियक ज्ञान पारमार्थिक दृष्टि से अर्थात् योगिज्ञानकी दृष्टि से भ्रान्त ही होते हैं। जैसे दोनों तैमिरिकोंको परस्पर द्विचन्द्रदर्शनमें संवाद है और एक दूसरे की अपेक्षासे उन दोनोंका ज्ञान उनको अविसंवादि ही मालूम होता है । उसी प्रकार हम समी पूथग्जनोंकी ऐन्द्रियक शक्तिमर्यादा करीब करीब एकसी है अत एव एक हदतक, हम समी, अपने कुछ ज्ञानोंको अभ्रान्त और कुछ को भ्रान्त मानकर, अपना व्यवहार चलाते हैं । वस्तुतः जिस इन्द्रिय ज्ञानको हम प्रमाण-अभ्रान्त समझते हैं वह भी योगिज्ञानकी दृष्टिसे अर्थात् पारमार्थिक प्रत्यक्षकी दृष्टिसे भ्रम ही है । जिस अविसंवादके कारण इन्द्रिय ज्ञानको अमान्त समझा जाता है वह अविसंवाद वस्तुतः दृश्य और प्राप्यके एकत्वारोपसे ही घट सकता है ऐसी स्थितिमें पृथग्जनोंका अविसंवादि ज्ञान भी परमार्थ दृष्टिसे भ्रम ही समझना होगा । इसी पारमार्थिक दृष्टिसे ही अनुमान ज्ञानको भ्रान्त कहा जाता है । व्यावहारिक दृष्टिसे तो वह भी अभ्रान्त है। व्यावहारिक दृष्टिसे भी जो विसंवादि है वह व्यावहारिक या प्रातिभासिक भ्रम है। यदि इन्द्रियजन्य कोई ज्ञान पारमार्थिक दृष्टिसे अभ्रान्त हो सकता है तो वह साक्षात् अर्थ .. 'बुद्धिस्ट लोजिक' भाग, १. पृ० १५३ । २. "भ्रान्तं हि अनुमानम्" न्यायवि० टी०पू०१३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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