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________________ पृ० २३. पं० १४ ] टिप्पणानि । १५९ सर्पज्ञान, पित्त दोषसे शर्करामें तिक्तताका ज्ञान, स्वप्नविज्ञान इत्यादि ज्ञानोंको सभी दार्शनिक एकमतसे भ्रम मानते हैं । इसी व्यावहारिक भ्रमकी प्रक्रिया में दार्शनिकोंका जो कुछ मतमतान्तर है उसीका विवेचन आगे करना इष्ट है । आधुनिक मानस शाखने भी व्यावहारिक भ्रमका विवेचन किया है । इन्द्रियके सामने उपस्थित पदार्थ में होने वाले मिथ्याप्रत्ययको मानसशास्त्री 'इल्यूशन' ( Illusion ) कहते हैं । और निर्विषयक मिथ्याज्ञानको 'हेल्यूशिनेशन' (Helucination) कहते हैं। रजमें सर्पका ज्ञान 'इल्यूजन' है और स्वमविज्ञान 'हेल्यूशिनेशन' है, क्योंकि उसमें विषयकी उपस्थितिके बिना ही पदार्थका स्पष्ट आकार प्रतिभासित होता है । 'इल्यूजन' के दृष्टान्त बडे मनोरंजक हैं। उनमें से कुछका यहाँ निदर्शन करना अप्रस्तुत नहीं । विषयकी अवस्थाविशेषमें इन्द्रियाँ समीको अवश्य धोखा देती हैं। उस दशामें इन्द्रियज्ञान यथार्थ हो ही नहीं पाता । जैसे एक नापकी दो रेखाएँ हों फिर भी अवस्थाविशेषमें उनमेंसे एक छोटी और दूसरी बडी मालूम होगी (देखो चित्र नं ० १ ) । नियम यह है कि क्षितिजकी समानान्तर (Horizontal ) रेखासे लम्बरूप रेखा ( Vertical ) हमेशा बडी ही प्रतीत होगी । इसी नियमके आधार पर टोपीकी ऊंचाई और चौडाई समान हो तब मी चौडाईसे ऊंचाई ज्यादह मालूम होगी (देखो चित्र नं० २ ) । खाली जगह से भरी जगह या विभक्त जगह हमेशा ज्यादह मालूम होती है (चित्र० नं० ३ ) । इस चित्रमें श्याम लकीरोंसे भरी जगह रिक्त जगह से अधिक प्रतीत होती किन्तु दोनोंका नाप बराबर ही है । विरोध भी इन्द्रियज्ञानों में भ्रम पैदा करता है। तीरकी नोकके आकारको किसी रेखाके अंतभागमें उलटा और सीधा रखनेसे रेखाके नापके जाननेमें भ्रम अवश्य होता है । चित्र नं० ४ (अ) में तीरके एक सिरेसे दूसरे सिरे तकका अन्तर समान होने पर मी असमान प्रतीत होता है। (ब) में असमानता अत्यन्त स्पष्ट है। फुटपट्टीसे नापकर समानता जानकर भी आंखोंको असमानता ही नजर आती है । 1 दूसरी रेखाओंके अमुक प्रकारसे संसर्गसे रेखाएँ अपना असली रूप दीखा नहीं सकतीं । सीधी रेखा टेढ़ी दिखती है (चित्र नं० ५ ) । इस चित्रमें अब और क ड रेखाएँ सीधी होने पर मी टेढी ही दिखती हैं। क्षेत्रफल विषयक हमारा अन्दाज प्रायः गलत होता है। नीचेके चित्र नं० ६ में दो चौरस हैं । उनमेंसे बडा छोटेसे दूना है । फिरमी वह दूना मालूम नहीं पड़ता । द्रष्टाकी दूरी या निकटताके कारण तथा उसकी अमुक स्थानमें अवस्थितिके कारण मी भ्रम होता है ( Illusion of Perspection ) । इसके लिए देखो चित्र नं० ७ । इसमें तीनों लकडीके टुकड़े समानाकार हैं फिरमी छोडे बड़े मालूम होते हैं । हम सभी जानते हैं। कि रेलकी दोनों पटरियाँ कमी नहीं मिलतीं किन्तु दूरदूर वह मिलती हुई नजर आती हैं। ३ - व्यावहारिक भ्रमकी प्रक्रियामें मतभेद । समी दार्शनिक शुक्तिकामें रजतज्ञानको भ्रम तो भानते हैं । किन्तु उसको भ्रम क्यों कहना इस विषयमें उनका ऐकमत्य नहीं । समी दर्शन अपने अपने तत्वज्ञानकी प्रक्रियाके शनुसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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