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________________ १५८ टिप्पणानि । [ पृ० २३. पं० १४ अपने अपने तर्कबलसे जो कुछ सिद्ध समझ रखा है उसकी नितान्त असिद्धि उनको दिखलाना । सभी दार्शनिकोंने अपने अपने दर्शनका महल मिथ्याज्ञानके आधार पर स्थिर किया है। सभी दार्शनिक इसी मिथ्याज्ञानके नाश द्वारा मोक्षका होना स्वीकार करते हैं । यदि संसारसे मिथ्याज्ञानका अस्तित्व ही मिट जाय तब दर्शनका प्रयोजन ही नहीं रहता । अतएव दार्शनिकोंके निरूपणीय मिथ्याज्ञानका मी खण्डन करना ज य राशि ने उचित समझा । नैयायिक संमत प्रत्यक्ष लक्षणमें अव्यभिचारि पद है । जय राशि ने बतलाया है कि कोई व्यभिचारि ज्ञान संसारमें हो तब तो उसकी व्यावृत्ति करनेके लिए प्रमाण लक्षणमें वह पद रखना योग्य है; किन्तु जब व्यभिचारि ज्ञानका अस्तित्व ही नहीं तब अव्यभिचारी विशेषण से किसकी व्यावृत्ति करना' ! । यदि ज्ञानके विषयकी व्यवस्था घट सके तब तो हम यह कह सकते हैं कि ज्ञानका आलम्बन अन्य है और प्रतीति किसी अन्यकी होती है अतएव अमुक ज्ञान मिथ्या है । परन्तु जब वास्तवमें ज्ञानके विषयकी व्यवस्था ही नहीं बन पाती तब मिष्याज्ञानका अस्तित्व कैसे सिद्ध होगा । उसने अनेक विकल्प उठा करके यह सिद्ध किया है कि ज्ञानके विषयकी व्यवस्था ही नहीं हो सकती' । इसका उत्तर जैन दार्शनिक प्रभा चन्द्र ने दिया है' । २ - मुख्य भ्रम और व्यावहारिकभ्रम । समी दार्शनिकोंने अपनी अपनी दृष्टिसे तत्त्वकी विवेचना की है । अतएव समीके मतसे तत्वज्ञान भिन्नभिन्न विषयक फलित होता है। जब नैयायिका दि कहते हैं कि द्रव्य-गुण आदिका मेद ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान-तत्वज्ञान है तब इसके विरुद्ध अद्वैतवादी कहते हैं कि उस दशानसे बढकर दूसरा कोई मिथ्याज्ञान ही नहीं । अर्थात् किसीको परमतत्वविषयक भ्रम है। या नहीं इसका निर्णय अत्यन्त कठिन है । क्यों कि जबतक परमतस्त्वके विषयमें समी दार्शनिक एकमत नहीं हो जाते तब तक सबमें परम तत्त्व विषयक भ्रम सदा बना ही रहेगा। दार्शनिकोंका यह भ्रम परम भ्रम या मुख्य भ्रम है । इस परमभ्रमकी व्याख्या करना कठिन है। इस परमभ्रमको सभी दार्शनिक मानते हैं। किन्तु इसका कोई एक लक्षण नहीं बन सकता । दूसरा भ्रम है व्यावहारिकभ्रम । इस व्यावहारिक भ्रमका ही प्रमाण शास्त्रमें मुख्यतः विवेचन होता है। सभी प्रामाणिकोंने इस भ्रमके अस्तित्वको समानरूपसे स्वीकार किया है और कौनसा ज्ञान इस भ्रम के अन्तर्गत है इस बारेमें भी विवाद नहीं । विवाद यदि है तो इस भ्रमज्ञान की उत्पत्तिकी प्रक्रियामें । महमरीचिकामें जल ज्ञान, शुक्कशंखमें पीतज्ञान, चलती गाड़ीसे दौड़ते हुए वृक्षादिका ज्ञान, केशोण्डुकविज्ञान, अलातचक्रज्ञान, द्विचन्द्रज्ञान, शुक्तिकामें रजतज्ञान, गन्धर्वनगरेज्ञान, रज्जमें १. तवो० पृ० ११. पं० २० । पृ० १३. पं० १६ । २. “कोऽयमालम्बनार्थो नाम येनेवसुदुच्यते अम्पदाकम्बनमन्यच प्रतिभातीति ? । किं विज्ञानजनकत्वम् आकारापकत्वम्, विज्ञानाधिकरणत्वम्, विज्ञानावभासितता वा ? " तस्वो० पृ० १२ । ३. प्रमेयक० पृ० ४८ । ४. तुलना - "सर्वदेषु च भूषस्तु विल्दार्थोपदेशिषु । तुम्पहेतुषु सर्वेषु को नामैकोऽवधार्यताम् ॥ सुगतो यदि सर्वशः कपिको नेति का प्रमा। भथोभावपि सर्वज्ञौ ममेदखयोः कथम् ॥" तत्वसं० ३१४८-९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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