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________________ १० १८.५०.] टिप्पणानि । १५३ पृ० १८. पं० १. 'सजातीयानपेक्षत्वेन तुलना-"संषित् खप्रकाशे खावान्तरजातीयं नापेक्षते, वस्तुत्वात्, घटयत्" प्रमाणमी० १.१.२ । वलं प्रकाशकत्वं सजातीयान्तरानपेक्षत्वे साध्ये विकल्पनीयं-किमत्यन्तसजातीयम्, माहो सजातीयमात्रम् । यद्यत्यन्तसजातीयं ततः सिद्धसाधनम् । न हि चक्षुरादिप्रमाणं खग्रहणे चक्षुराचस्तरमपेक्षते। मथ कश्चित्लजातीयम्, तदपेक्षत्वम् आलोकस्याप्यस्ति, तस्य चक्षुराधपेक्षत्वात् । ततश्च साध्यहीनो दृष्टान्तः, विश्वच हेतु विषयज्ञानमपि विषयमानेन म गृह्यते किन्तु ज्ञानविषयेण ज्ञानेनेति नात्यन्तसजातीयमिति"तात्पर्य० पृ० ३७२। पृ० १८. पं० ३. 'न किञ्चित' तुलना-"अथात्मरूपं नो वेत्ति पररूपस्य वित्कथम्"प्रमाणवा० २.४४४ । “यदि हानेऽपरिच्छिन्ने हातोऽसाविति तत् कुतः । शातत्वेनापरिछिनमपि तमकं कथम् ॥" वही २.४६७ । “सर्व हि सापकं शातं खयमन्यस्य वेदकम्" तत्त्वार्थश्लो० पृ०.४१ । पृ० १८. पं० १. 'अन्धमूकं तुलना-"अध्यक्षमात्मनि ज्ञानमपरत्रानुमानिकम् । नान्यथा विषयालोकव्यवहारविलोपतः॥" न्यायवि० १३।। पृ० १८. पं० ५. 'इतश्च' यहाँ से मी मां स क संमत आत्मव्यापारके प्रामाण्य का खण्डन शान्त्या चार्य ने किया है। जयन्त ने न्याय मजरी में (पृ० १५) औरोंके प्रमाणलक्षणके खण्डनके प्रसंगमें इसका खण्डन किया है । ज यन्त ने इसे शाबरों का मत कहा है । और प्रसंगसे कहा है कि "अपि च क्रियापि प्रत्यक्षद्रव्यपर्तिनी प्रत्यक्षव, माना प्रत्यसबारमा" । पूर्वपक्षमें स्पष्ट कहा है कि वह व्यापार फलानुमेय है और उस बातके समर्थनमें भाष्यकारके "न बहातेऽर्थे कधिदुर्मि उपलभते जाते त्वनुमानादवगच्छतीति" इस वाक्य को उद्धृत करके 'वा ति क कार' कु मा रिल के वचनको मी उद्धृत किया है । इससे स्पष्ट है कि यह मत भाट्टों का है । प्राभा करों का नहीं । किन्तु प्रभा चन्द्र ने दो प्रकारके ज्ञातृव्यापारका खण्डन किया है। उनका कहना है कि अज्ञानरूप ज्ञातृव्यापार प्रभाकर संमत है-प्रमेयक० पृ० २० । और ज्ञानरूप ज्ञातृव्यापार कु गा रिल संमत है- वही० पृ० २५ । इसके विपरीत प्रभा कर और प्रा भाकरों के अन्यकी बात है। प्रभा करने खयं वृहती (१.१.५) में अनुभूतिको प्रमाण कहा है । और शा लि क ना थने मी वही किया हैप्रकरणपं० पृ० ४२ । तब प्रश्न यह है कि प्रभा चन्द्र ने जो कुछ कहा है उसका मूलाधार क्या है। प्रभा चन्द्र ने पूर्वपक्ष-उत्तरपक्षमें प्रस्तुतवाद में सर्वत्र जयन्त का ही शब्दशः अनुकरण किया है । किन्तु जयन्तने ज्ञातृव्यापारको प्रभाकरसंमत नहीं बताया है । प्रस्तुत वादकी चर्चा सन्म ति तर्क टी का (पृ० २०) में भी है। प्रस्तुत चर्चा शान्त्या चार्य ने न्याय मंजरी आदि ग्रन्थोंके आधार पर ही की हुई जान पडती है। पृ० १८. पं० ७. 'आत्मव्यापार' "शायरास्तु लुवते...""शानं हि नाम क्रियात्मकं, क्रिया च फलानुमेया कातृव्यापारमन्तरेण फलानिष्पत्तेः । संसर्गोऽपि कारकाणां क्रियागर्भ एव भवति । तदनभ्युपगमे किमधिकृत्य कारकाणि संसृज्येरन् । न चासंसृष्टानि तानि फलवन्ति..."तस्माद्यथा हि कारकाणि तण्डुलसलिलानलस्थाल्यादीनि सिद्धस्वभा. न्या० २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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