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________________ १४८ शान्याचार्य और उनका समय । "श्रीनागेन्द्रकुले मुनीन्द्रसवितुः श्रीमन्महेन्द्रप्रभोर, पट्टे पारगतांगमोपनिषदां पारंगमप्रामणीः । देवः संयमदैवतं निरवधिविधवागीश्वरः, संजो कलिकल्मषैरकलुषः श्रीशान्तिसरिगुरुः ॥ शक्ति कापि न कापिलस्य न नये नैयायिको नायकः चार्वाका परिपाकमुजिझतमतिर्बोध मोत्यभाक। स्याबैशेषिकशेमुषी व विमुखी वादाय वेदान्तिके ... .दांतिर केवलमस्य वारयते सीमा न मीमांसकः॥" देखो, पत्तनस्थ०. पृ० २३६ । ये सिद्धराजके समकालीन या कुछ पूर्ववर्ती होंगे । क्योंकि उसी वृत्तिमें कहा है कि इनके प्रशिष्य अमरचन्द्रका सिद्धराजकी सभामें काफी सन्मान था। सिद्धराजने इनको 'सिंहशिशुक' का बिरुद दिया था (जै० सा० सं० पृ० २४९) सिद्धराजका राजत्व काल वि.. सं० ११५०-११९९ है। ___ 'प्राचीन लेख संग्रह में (लेख ३८१) विजयसेनसूरिका प्रतिष्ठालेख सं० १२८८ का है। उससे सूचित होता है कि शान्तिसूरि महेन्द्रके साक्षात् शिष्य नहीं किन्तु उनकी परंपरामें हुए थे "सं० १२८८ वर्षे ..........."श्रीनागेन्द्रगच्छे भट्टारकभीमहेन्द्रसूरिसन्ताने शिसभी. शान्तिसूरिशिष्यश्रीमानंदसूरिश्रीममरसूरिपदे भहारकश्रीहरिभद्रसूरिपट्टालंकरणप्रमुभी. विजयसेनसूरि प्रतिष्ठित ........." ९ मडाहडीयगच्छके शान्तिमरि-मडाहडीय गच्छके यशोदेव सूरिकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा सं. १३८७ में इन्होंने की थी। इसीसे अनुमान होता है कि वे उक्त गच्छके होंगे । देखो 'प्राचीन जैन लेख संग्रह,' लेख ५०८ । मडाहडीय गच्छके वर्धमानने अपने गछको कहीं कहीं वृहद्रच्छ भी कहा है । इससे पता चलता है कि मडाहडीय गच्छ वृहद्रग्छकी शाखा होगी (प्राचीन जैन लेख सं० लेख, ५५०,२९२)।। . पूर्वोक वृहद् गच्छीय शान्तिसूरिसे प्रस्तुत शान्तिसूरि भिन्न हैं क्योंकि वे सं० १९६१ में विषमान थे और प्रस्तुत शान्तिसूरि सं० १३८७ में। १० तपागच्छके शान्त्याचार्य-वादी देवसूरिने अपने शिष्योंमेंसे २४ मुनियोंको आचार्यपद पर प्रतिष्ठित किया। उनमेंसे एक शान्त्याचार्य भी थे। अतएव उनका समय विक्रम १२ वी शताब्दीके उत्तरार्ध से १३ वी का पूर्वार्ध सिद्ध होता है-जैनगूर्जर कविओ भाग.२ पृ० ७५७ । ११ पल्लीवालगच्छके शान्त्याचार्य- पल्लीवाल गच्छकी एक पटावली श्री नाहटाजीने श्रीआत्मानन्द शताब्दी स्मारकमें (पृ० १८४) प्रकाशित करवाई है । सं० १६१ में एक शाम्साचार्य हुए। उनके बाद १ यशोदेव, २ नन, ३ उद्योतन, ४ महेश्वर, ५ अभयदेव ६ आमदेव ये छः आचार्य हुए । इनके बाद फिर लगातार उक्त नामके सात-सात आचार्योंका क्रम सं० १९८७ तक चला है । और क्रमशः निनोक्त संवतोंमें शान्माचार्य खर्गत हुए हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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