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________________ संसारवर्णन । १३० आत्माको ज्ञानादि खपरिणामोंका' ही कर्ता मानना चाहिए । आत्मेतर कर्मादि यावत् कारणोंको अपेक्षाकारण या निमित्त कहना चाहिए' । 1 वस्तुतः दार्शनिकोंकी दृष्टिसे जो उपादान कारण है उसीको आचार्यने पारमार्थिक दृष्टि कर्ता कहा है । और अन्य कारकोंको बौद्धदर्शन प्रसिद्ध हेतु, निमित्त या प्रत्मय शब्दसे कहा है। जिस प्रकार जैनोंको ईश्वरकर्तृत्व मान्य नहीं है' उसी प्रकार सर्वथा कर्मकर्तृत्व मी मान्य नहीं है। आचार्यकी दार्शनिक दृष्टिने यह दोष देख लिया कि यदि सर्वकर्तुत्वकी जवाबदेही ईश्वरसे छिनकर कर्म के ऊपर रखी जाय तब पुरुषकी खाधीनता खंडित हो जाती है इतना ही नहीं किन्तु ऐसा मानने पर जैनके कर्मकर्तृत्वमें और सांख्योंके प्रकृतिकर्तृत्वमें भेद भी नहीं रह जाता और आत्मा सर्वथा अकारक- अकर्ता हो जाता है । ऐसी स्थितिमें हिंसा या अब्रह्मचर्यका दोष आत्मामें न मान कर कर्ममें ही मानना पडेगा । अत एव मानना यह चाहिए कि आत्माके परिणामोंका स्वयं आत्मा कर्ता है और कर्म अपेक्षा कारण है तथा कर्मके परिणामोंमें स्वयं कर्म कर्ता है और आत्मा अपेक्षा कारण है । "जब तक मोहके कारणसे जीव परद्रव्योंको अपना समझ कर उनके परिणामोंमें निमित्त बनता है तब तक संसारवृद्धि निश्चित है । जब भेदज्ञानके द्वारा अनात्मको पर समझता है तब वह कर्ममें निमित्त भी नहीं बनता और उसकी मुक्ति अवश्य होती है । (६) शुभ-अशुभ-शुद्ध अध्यवसाय-सांख्य कारिकामें कहा है कि धर्म - पुण्यसे ऊर्ध्वगमन होता है, अधर्म - पापसे अधोगमन होता है किन्तु ज्ञानसे मुक्ति मिलती है । इसी जातको आचार्य जैन परिभाषाका प्रयोग करके कहा है कि आत्माके तीन अध्यवसाय होते हैं - शुभ, अशुभ और शुद्ध । शुभाध्यवसायका फल स्वर्ग है, अशुभका नरकादि और शुद्धका मुक्ति है। इस मतकी न्याय-वैशेषिकके साथ मी तुलना की जा सकती है। उनके मतसे मी धर्म और अधर्म ये दोनों संसारके कारण हैं और धर्माधर्मसे मुक्त शुद्ध चैतन्य होने पर ही मुक्तिलाभ होता है । मेद यही है कि वे मुक्त आत्माको शुद्ध रूप तो मानते हैं किन्तु ज्ञानमय नहीं । $ १५ संसारवर्णन । आचार्य कुन्दकुन्दके प्रन्थोंसे यह जाना जाता है कि वे सांख्य दर्शनसे पर्याप्तमात्रा में प्रभावित हैं । जब वे आत्माके अकर्तृत्व आदिका समर्थन करते हैं" तब वह प्रभाव स्पष्ट दिखता है। इतना ही नहीं किन्तु सांख्योंकी ही परिभाषाका प्रयोग करके उन्होंने संसार वर्णन भी किया है। सांख्योंके अनुसार प्रकृति और पुरुषका बन्ध ही संसार है। जैनागमों में प्रकृतिबंध नामक बंधका एव प्रकार माना गया है । अत एव आचार्यने अन्य शब्दोंकी अपेक्षा प्रकृति शब्दको संसार वर्णन प्रसंग में प्रयुक्त करके सांख्य और जैन दर्शनकी समानता की ओर संकेत किया है। उन्होंने कहा हैं १ समयसार १०७, १०९ । २ समयसार ८६-८०,३३९ । ३ समयसार ३५०-३५१ । ४ समयसार ३६६-३७४ । ५ समयसार ८६-८८, ३३९ । ६ समयसार ७४-७५, ९९, ४१७-४१९ । ७ वही ७६-७९, १००, १०४, ३४३ । ८ "धर्मेण गमनमूर्ध्व गमनमचकाजवत्यधर्मेण । ज्ञानेन चापवर्ग:" सfoमका० ४४ । ९ प्रवचन० १.९, ११, १२, १३, २.८९ । समयसार १५५ -१६१ । १० समयसार ८०,८१३४८, । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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