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________________ ११८ आ० कुन्दकुन्दकी जैन दर्शनको देन । की है ऐसा उपलब्ध साहित्य सामग्रीके आधार पर कहा जा सकता है। आ० कुन्दकुन्दने जैन तत्वोंका निरूपण वा० उमाखातिकी तरह मुख्यतः आगमके आधारपर नहीं किन्तु तत्कालीन दार्शनिक विचारधाराओंके प्रकाशमें आगमिक तत्त्वोंको स्पष्ट किया है इतना ही नहीं किन्तु अन्य दर्शनोंके मन्तव्योंका यत्र तत्र निरास करके जैन मन्तव्योंकी निर्दोषता और उपादेयता मी सिद्ध की है । वाचक उमाखाति तत्त्वार्थकी रचनाका प्रयोजन मुख्यतः संस्कृत भाषा में सूत्र शैलीके ग्रन्थकी आवश्यकताकी पूर्ति करना था । तब आ० कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंकी रचनाका प्रयोजन कुछ दूसरा ही था । उनके सामने तो एक महान् ध्येय था । दिगम्बर संप्रदायकी उपलब्ध जैन आगमौके प्रति अरुचि बढती जा रही थी। किन्तु जब तक ऐसा ही दूसरा साधन आध्यात्मिकभूखको मिटानेवाला उपस्थित न हो तब तक प्राचीन जैन आगमोंका सर्वथा त्याग संभव न था । आगमोंका त्याग कई कारणों' से करना आवश्यक हो गया था किन्तु दूसरे प्रबल समर्थ साधनके अभाव में वह पूर्णरूपसे शक्य न था । इसीको लक्ष्यमें रख कर आ० कुन्दकुन्दने दिगम्बर संप्रदायकी आध्यात्मिक भूख भांगनेके लिये अपने अनेक ग्रन्थोंकी प्राकृत भाषामें रचना की । यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्द के विविध ग्रन्थोंमें ज्ञान, दर्शन और चारित्रका निरूपण प्राचीन आगमिक शैलीमें और आगमिक भाषामें पुनरुक्तिका दोष स्वीकार करके मी विविध प्रकारसे हुआ है । उनको तो एक एक विषयका निरूपण करनेवाले खतन्त्र ग्रन्थ बनाना अभिप्रेत या और समग्र विषयोंकी संक्षिप्त संकलना करनेवाले ग्रन्थ बनाना भी अभिप्रेत था । इतनाही नहीं किन्तु आगमके मुख्य विषयका यथाशक्य तत्कालीन दार्शनिक प्रकाशमें निरूपण भी करना था जिससे जिज्ञासुकी श्रद्धा और बुद्धि दोनोंको पर्याप्त मात्रामें संतोष मिल सके । आचार्य कुन्दकुन्दके समय में अद्वैतवादोंकी बाढसी आई थी । औपनिषद ब्रह्माद्वैतके अतिरिक्त शून्याद्वैत और विज्ञानाद्वैत जैसे वाद भी दार्शनिकोंमें प्रतिष्ठित हो चुके थे । तार्किक और 1 श्रद्धालु दोनोंके ऊपर उन अद्वैतवादका प्रभाव सहज ही में जम जाता था । अतएव ऐसे विरोधी वादोंके बीच जैनोंके द्वैतवादकी रक्षा करना कठिन था । इसी आवश्यकतामें से आ० कुन्दकुन्दके निश्चयप्रधान अध्यात्मवादका जन्म हुआ है । जैन आगमोंमें निश्चयनय प्रसिद्ध था ही और निक्षेपोंमें भावनिक्षेप भी मौजूद था । भावनिक्षेपकी प्रधानतासे निश्चयनय का आश्रय लेकर, जैन तत्वोंके निरूपणद्वारा आ० कुन्दकुन्दने जैनदर्शनको दार्शनिकोंके सामने एक नये रूपमें उपस्थित किया । ऐसा करनेसे वेदान्त का अद्वैतानन्द साधकोंको और तस्वजिज्ञासुओंको जैनदर्शन में ही मिल गया । निश्वयनय और भावनिक्षेप का आश्रय लेनेपर - द्रव्य और पर्याय; द्रव्य और गुण; धर्म और धर्मि; अवयव और अवयवी इत्यादिका मेद मिटकर अमेद हो जाता है । ० कुन्दकुन्दको इसी अभेदका निरूपण परिस्थितिवश करना था अत एव उनके प्रन्थोंमें निश्चय प्रधान वर्णन हुआ है । और नैश्वयिक आत्माके वर्णनमें ब्रह्मवाद के समीप जैन आत्माबाद पहुंच गया है। आ० कुन्दकुन्दकृत ग्रन्थोंके अध्ययन के समय उनकी इस निश्चय और सास कर, वसधारण, केवली कवकाहार, स्त्रीमुक्ति, आपवादिक मसिवान इत्यादिके उल्लेख जैन आगमोंमें थे जो दिगम्बरसंप्रदाय के अनुकूल न थे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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