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________________ प्रस्तावना । १११ वाचक उमाखात लौकिक परंपराको अपनी आगमिक मौलिक परंपराके जितना महत्त्व देना चाहते न थे और दार्शनिक जगत में जैन आगमिक परंपराका स्वातन्त्र्य भी दिखाना चाहते थे । यही कारण है कि अनुयोगद्वारमें जो लोकानुसरण करके इन्द्रिय प्रत्यक्षरूप आंशिकमतिज्ञानको प्रत्यक्ष प्रमाण कहा है उसे उन्होंने अमान्य रखा इतना ही नहीं किन्तु नन्दीमें जो इन्द्रियजमतिको प्रत्यक्ष ज्ञान कहा है उसे भी अमान्य रखा । और प्रत्यक्ष-परोक्षकी प्राचीन मौलिक आगमिक व्यवस्थाका अनुसरण करके कह दिया कि मति और श्रुत ज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं और अवधि, मन:पर्यय और केवल प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । बादके जैन दार्शनिकोंने इस विषयमें वा० उमाखातिका अनुसरण नहीं किया बल्कि लोकानुसरण करके इन्द्रिय प्रत्यक्षको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष माना है । ६३ प्रमाणसंख्यान्तरका विचार । जब वाचकने प्रमाणके दो भेद किये तब प्रश्न होना स्वाभाविक है कि जैनागममें जो प्रत्यक्षादि चार प्रमाण माने गये हैं उसका क्या स्पष्टीकरण है ? तथा दूसरोंने जो अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति, संभव और अभाव प्रमाण माने हैं उनका इन दो प्रमाणोंके साथ क्या मेल है ? उन्होंने उसका उत्तर दिया कि आगमोंमें प्रमाणके जो चार भेद किये गये हैं वे नयवादान्तरसे हैं । तथा दर्शनान्तरमें जो अनुमानादि प्रमाण माने जाते हैं उनका समावेश मतिश्रुतरूप परोक्ष प्रमाणमें करना चाहिए । क्योंकि उन समीमें इन्द्रियार्थसन्निकर्षरूप निमित्त मौजुद है'। इस उत्तरसे उनको संपूर्ण संतोष नहीं हुआ क्योंकि मिथ्याग्रह होनेके कारण जैनेतर दार्शनिकोंका ज्ञान आगमिक परिभाषाके अनुसार अज्ञान ही कहा जाता है । अज्ञान तो अप्रमाण है । अंत एव उन्होंने इस आगमिक दृष्टिको सामने रख कर एक दूसरा भी उत्तर दिया किं दर्शनान्तर संगत अनुमानादि अप्रमाण ही हैं । उपर्युक्त दो विरोधी मन्तव्य प्रकट करनेसे उनके सामने ऐसा प्रश्न आया कि दर्शनान्तरीय चार प्रमाणोंको नयवादसे प्रमाण कोटिमें गिनते हो और दर्शनान्तरीय सभी अनुमानादि प्रमाणोंको मति श्रुतमें समाविष्ट करते हो इसका क्या खुलासा ! इसका उत्तर यों दिया है - शब्दनयके अभिप्रायसे ज्ञान - अज्ञानका विभाग ही नहीं । सभी साकार उपयोग ज्ञान ही हैं। शब्दनय श्रुत और केवल इन दो ज्ञानोंको ही मानता है। बाकी के सब ज्ञानोंको श्रुतका उपग्राहक मानकर उनका पृथक् परिगणन नहीं करता । इसी दृष्टिसे आगम प्रत्यक्षादि चारको प्रमाण कहा गया है और इसी दृष्टिसे अनुमानादिका अन्तर्भाव मति श्रुतमें किया गया है । प्रमाण और अप्रमाणका विभाग नैगम, संग्रह और व्यवहारनयके अवलम्बनसे होता है क्योंकि इन तीनों नयोंके मतसे ज्ञान और अज्ञान दोनोंका पृथक् अस्तित्व माना गया है । १ "भाये परोक्षम् । प्रत्यक्षमन्यत् ।" तस्वार्थ १.१०, ११ । २ तस्वार्थ० भा० १.६ । ३ तत्वार्थ भा० १.१२ । ४ " अप्रमाणान्येव वा । कुतः ? मिथ्यादर्शनपरिग्रहात् विपरीतोपदेशाच्च । मिथ्यादृटेर्हि मतिश्रुतावभयो नियतमज्ञानमेवेति ।" तस्वार्थभा० १.१२ । ५] तस्वार्थ भा० १.३५ । ६ तस्वार्थ भा० १.३५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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