SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना। पर किया गया है । तात्पर्य इतना ही जान पडता है कि जो बंधयोग्य है वह पुद्गल है । इस प्रकार पुद्गलोंमें परस्पर और जीवके साथ बद्ध होनेकी शक्तिका प्रतिपादन ग्रहण शब्दसे किया गया है। इस व्याख्यासे पुद्गलका खरूपबोध स्पष्ट रूपसे नहीं होता । उत्तराध्ययनमें उसकी जो दूसरी व्याख्या (२८.१२) की गई है वह खरूपबोधक है "सहन्धयारउजोओ पहा छायातये वा। घण्णरसगन्धफासा पुग्गलाणं तु लक्षणं ॥" दर्शनान्तरमें शब्दादिको गुण और द्रव्य माननेकी जुदी जुदी कल्पनाएँ प्रचलित हैं । इसके स्थानमें उक्त सूत्रमें शब्दादिका समावेश पुद्गल द्रव्यमें करनेकी सूचना की है । और पुद्गल द्रव्य की व्याख्या मी की है कि वर्णादियुक्त है सो पुद्गल । वाचकके सामने आगमोक्त द्रव्योंका निम्न वर्गीकरण था ही' द्रव्य जीव अजीव रूपा अरूपी १धर्मास्तिकाय १ पुद्गल २ अधर्मास्तिकाय ३ आकाशास्तिकाय ४ अद्धासमय इसके अनुसार पुद्गलके अलावा कोई द्रव्य रूपी नहीं है अत एव मुख्यरूपसे पुद्गलका लक्षण वाचकने किया कि "स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्रलाः।" (५.२३) । तथा "शब्द-बन्ध-सौ. क्षम्य स्थौल्य-संस्थान मेद-तमश्छायातपोद्योतवन्तश्च।" (५.२४) इस सूत्रमें बन्धादि अनेक नये पदोंका मी समावेश करके उत्तराध्ययनके लक्षणकी विशेष पूर्ति की। पुद्गलके विषयमें पृथक् दो सूत्रोंकी क्यों आवश्यकता है इसका स्पष्टीकरण करते हुए वाचकने जो कहा है उससे उनकी दार्शनिक विश्लेषण शक्तिका पता हमें लगता है। उन्होंने कहा है कि "स्पर्शादयः परमाणुषु स्कन्धेषु च परिणामजा एव भवन्ति । शब्दादयश्च स्कन्धेष्वेव भवन्ति अनेकनिमित्ताश्च इत्यतः पृथक्करणम्" तत्त्वार्थभा० ५.२४ । परंतु द्रव्योंका साधर्म्य-वैधर्म्य बताते समय उन्होंने जो "रूपिणः पुद्गलाः" (५.४) कहा है वही वस्तुतः पुद्गलका सर्वसंक्षिप्त लक्षण है और दूसरे द्रव्योंसे पुद्गलका वैधर्म्य भी प्रतिपादित करता है। प्रज्ञापना पद ।। भगवती ७.१०.३०४. । अनुयोग. सू. १४४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy