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________________ प्रस्तावना। ९७ लेना स्थापना है । अर्थात् न्याय वाक्य दो भागोंमें विभक्त है - प्रतिज्ञा और स्थापना । प्रतिज्ञासे अतिरिक्त जिन अवयवोंसे वस्तु स्थापित-सिद्ध होती है उनको स्थापना कहा जाता है "स्थापना नाम तस्या एव प्रतिक्षायाः हेतुदृष्टान्तोपमय निगमनैः स्थापना। पूर्व हि प्रतिज्ञा पश्चात स्थापना । किं हि अप्रतिज्ञातं स्थापयिष्यति।" वही ३१.। __ आ० भद्रबाहुने जो अर्थ किया है वही अर्थ यदि स्थापनाकर्मका लिया जाय तब चरकसंहितागत परिहार के साथ स्थापनाकर्मका सादृश्य है । क्यों कि परिहारकी व्याख्या चरकने ऐसी की है - "परिहारो नाम तस्यैव दोषवचनस्य (हेतुदोषवचनस्य) परिहरणम्" वही ६०। (४) प्रत्युत्पमविनाशी--जिससे आपन्न दूषणका तत्काल निवारण हो वह प्रत्युत्पन्नविनाशी है जैसे किसी शून्यवादीने कहा कि जब समी पदार्थ नहीं तो जीवका सद्भाव कैसे ! तब उसको तुरंत उत्तर देना कि "ज भणसि नस्थि भावा अयणमिणं अस्थि नस्थि जर अस्थि । एव पदमाहाणी असओ गु निसेहए को णु ॥ ७१॥ अर्थात् निषेधक वचन है या नहीं ? यदि है तो सर्व निषेध नहीं हुआ क्यों कि वचन सत् हो गया । यदि नहीं तो सर्वभावका निषेध कैसे ! असत् ऐसे वचनसे सर्ववस्तुका निषेध नहीं हो सकता । और जीवके निषेधका भी उत्तर देना कि तुमने जो शब्दप्रयोग किया वह तो विवक्षापूर्वक ही । यदि जीव ही नहीं तो विवक्षा किसे होगी ! अजीवको तो विवक्षा होती नहीं । अत एव जो निषेधवचनका संभव हुआ उसीसे जीवका अस्तित्व भी सिद्ध हो जाता है । यह उत्तरका प्रकार प्रत्युत्पत्नविनाशी है - दशवै० नि० गा० ७०-७२। आ० भद्रबाहुकी कारिकाके साथ विग्रहव्यावर्तनीकी प्रथम कारिकाकी तुलना करना चाहिए । प्रतिपक्षीको प्रतिज्ञाहानि निग्रहस्थानसे निगृहीत करना प्रत्युत्पन्नविनाशी आहरण है । प्रतिज्ञाहानि निग्रहस्थान न्यायसूत्र (५. २.२) चरक (वही ६१) और तर्कशास्त्रमें (पृ० ३३) है। (२) आहरणतद्देश। (१) अनुशास्ति-प्रतिवादीके मन्तव्यका आंशिक खीकार करके दूसरे अंशमें उसको शिक्षा देना अनुशास्ति है जैसे सांख्य को कहना कि सच है आत्माको हम भी तुम्हारी तरह सबूत मानते हैं किन्तु वह अकर्ता नहीं, कर्ता है, क्यों कि वही सुखदुःखका वेदन करता है। अर्थात् कर्मफल पाता है "जेसि पि अस्थि माया पत्तव्या ते वि अम्ह वि स अस्थि । किन्तु अकत्ता न भवह वेययह जेण सुहदुक्खं ॥ ७५॥" (२) उपालम्भ-दूसरेके मतको दूषित करना उपालम्भ है । जैसे चार्वाकको कहना कि यदि आत्मा नहीं है तो 'आत्मा नहीं है' ऐसा तुम्हारा कुविज्ञान भी संभव नहीं है । अर्थात् तुम्हारे इस कुविज्ञानको खीकार करके भी हम कह सकते हैं कि उससे आत्माभाव सिद्ध नहीं । क्यों कि 'आत्मा है! ऐसा ज्ञान हो या 'आत्मा नहीं है। ऐसा कुविज्ञान हो ये दोनों कोई चेतन जीवके अस्तित्वके विना संभव नहीं क्यों कि अचेतन घटमें न ज्ञान है न कुविज्ञान - दशवै० नि० ७६-७७। न्या. प्रस्तावना १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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