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________________ वादका महत्व । सूत्रकृतांग में गौतम और पार्श्वानुयायी उदक पेढालपुत्तका वाद मी सुप्रसिद्ध है - सूय०२.७ । गुरुशिष्य के बीच होनेवाला वाद वीतरागकथा कही जाती है क्योंकि उसमें जय-पराजयको अवकाश नहीं । इस वीतरागकथासे तो जैन आगम भरे पडे हैं । किन्तु विशेषतः इसके लिये भगवतीसूत्र देखना चाहिए । उसमें भगवान् के प्रधान शिष्य गौतमने मुख्यरूप से तथा प्रसंगतः अनेक अन्य शिष्योंने अनेक विषयोंमें भगवान् से प्रश्न पूछे हैं और भगवान्ने अनेक हेतुओं और दृष्टान्तोंके द्वारा उनका समाधान किया है । ८४ इन सब वादोंसे स्पष्ट है कि जैन श्रमणों और श्रावकोंमें वादकलाके प्रति उपेक्षाभाव नहीं था । इतनाही नहीं किन्तु धर्मप्रचारके साधनरूपसे वादकलाका पर्याप्तमात्रामें महत्व था । यही कारण है कि भगवान् महावीरके ऋद्धिप्राप्त शिष्योंकी गणनामें वादप्रवीणशिष्योंकी पृथकू गणना की है। इतना ही नही किन्तु सभी तीर्थकरोंके शिष्योंकी गणनामें वादिओंकी संख्या पृथक् बतलाने की प्रथा हो गई है'। भगवान् महावीरके शिष्यों में वादीकी संख्या बताते हुए स्थानांग में कहा है 1 "समणस्स णं भगवओ महावीरस्स चत्तारिसया वादीणं सदेवमणुयासुराते परिसाते अपराजियाणं उक्कोसिता वादिसंपया हुत्या " - स्थानांग ३८२ । यही बात कल्पसूत्रमें (सू० १४२ ) भी है । स्थानांगसूत्रमें जिन नव प्रकारके निपुण पुरुषोंको गिनाया है उनमें भी याद विद्याविशार दका स्थान है - सू० ६७९ । धर्मप्रचारमें वाद मुख्य साधन होनेसे वादविद्यामें कुशल ऐसे वादी साधुओंके लिये आचारके कठोर नियम भी मृदु बनाये जातेथे इसकी साक्षी जैनशास्त्र देते हैं । जैनआचारके अनुसार शरीरशुचिता परिहार्य है । साधु स्नानादि शरीर संस्कार नहीं कर सकता, इसी प्रकार स्निग्धभोजनकी भी मनाई है । तपस्याके समय तो और भी रूक्ष भोजनका विधान है। साफ-सुथरे कपडे पहनना भी अनिवार्य नहीं । पर कोई पारिहारिक तपस्वी साधु वादी हो और किसी सभामें वादके लिये जाना पडे तब सभाकी दृष्टिसे और जैनधर्मकी प्रभावनाकी दृष्टिसे उसे अपना नियम मृदु करना पडता है तब वह ऐसा कर लेता है । क्यों कि यदि वह सभायोग्य शरीरसंस्कार नहीं कर लेता तो विरोधिओंको जुगुप्साका एक मौका मिल जाता है । मलिनवस्त्रोंका प्रभाव भी सभाजनों पर अच्छा नहीं पडता अत एव वह साफ सुथरे कपडे पहन कर सभामें जाता है। रूक्षभोजन करनेसे बुद्धिकी तीव्रतामें कमी न हो इसलिये वाद करनेके प्रसंग में प्रणीत अर्थात् स्निग्ध भोजन लेकर अपनी बुद्धिको सरवशाली बनानेका यत्न करता है । ये सब सकारण आपवादिक प्रतिसेवना हैं । प्रसंग पूर्ण हो जाने पर गुरु उसे अपवादसेवनके लिये हलका प्रायश्चित्त दे करके शुद्ध कर लेता है । सामान्यतः नियम है कि साधु अपने गण-गच्छको छोड़ कर अन्यत्र न जाय किन्तु ज्ञानदर्शन और चारित्रकी वृद्धिकी दृष्टिसे अपने गुरुको पूछ कर दूसरे गणमें जा सकता है । दर्शनको लक्ष्य में रख कर अन्य गणमें जानेके प्रसंगमें स्पष्टीकरण किया गया है कि यदि १ कल्पसूत्र सू० १६५ इत्यादि । २ " पाया वा दंतासिया ड. धोया, वा बुद्धिहेतुं व पणीयभतं । तंबातिगं वा महससहेडं सभाजपट्टा सिचयं न सुकं ॥" बृहत्कल्पभाष्य ६०३५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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