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________________ અર अनुमानचर्चा ! उदाहरण बदलना आवश्यक हो गया। इससे यह भी कहा जा सकता है कि अनुयोगमें जो विवेचन है वह प्राचीन परंपरानुसारी है । कुछ दार्शनिकोंने कारणसे कार्यके अनुमानको और कुछने कार्यसे कारणके अनुमानको पूर्ववत् माना है ऐसा उनके दिये हुए उदाहरणोंसे प्रतीत होता है - मेघोन्नति दृष्टिका अनुमान करना यह कारणसे कार्यका अनुमान है इसे पूर्ववत् का उदाहरण माननेवाले माठर, वात्स्यायन और गौडपाद हैं। अनुयोगद्वारके मत से कारणसे कार्यका अनुमान शेषवदनुमानका एक प्रकार है । किन्तु प्रस्तुत उदाहरणका समावेश शेषवदके 'आश्रयेण' भेदके अन्तर्गत है । वात्स्यायनने मतान्तरसे धूमसे वहिके अनुमानको भी पूर्ववत् कहा है। यही मत चरक' और मूलमाध्यमिककारिकाके टीकाकार पिङ्गल (१) को मी' मान्य था । शबर' भी वही उदाहरण लेता है । माठर मी कार्यसे कारण के अनुमानको पूर्ववत् मानता है किन्तु उसका उदाहरण दूसरा हैपया, नदीपूरसे वृष्टिका अनुमान । अनुयोगके मतसे धूमसे वह्निका ज्ञान शेषवदनुमानके पांचवे भेद 'आश्रयेण' के अन्तर्गत है । माठरनिर्दिष्ट नदीपूरसे दृष्टिके अनुमानको अनुयोगमें अतीतकालप्रहण कहा है। और वात्स्यायनने कार्यसे कारणके अनुमानको शेषवद कह कर माठरनिर्दिष्ट उदाहरणको शेषवद् बता दिया है। पूर्वका अर्थ होता है कारण । किसीने कारणको साधन मानकर, किसीने कारणको साध्य मानकर और किसीने दोनों मानकर पूर्ववत्‌की व्याख्या की है अत एव पूर्वोक्त मतवैविध्य उपलब्ध होता है । किन्तु प्राचीनकालमें पूर्ववत्से प्रत्यभिज्ञा ही समझी जाती थी ऐसा अनुयोग और उपायहृदयसे स्पष्ट है। न्यायसूत्रकारको 'पूर्ववत्' अनुमानका कैसा लक्षण इष्ट था उसका पता लगाना मी आबश्यक है। प्रो० ध्रुवका अनुमान है कि न्यायसूत्रकारने पूर्ववत् आदि शब्द प्राचीन मीमांसकोंसे लिया है और उस परंपराके आधारपर यह कहा जा सकता है कि पूर्वका अर्थ कारण और शेषका अर्थ कार्य है । अत एव न्यायसूत्रकारके मतमें पूर्ववत् अनुमान कारणसे कार्यका और शेषवत् अनुमान कार्बसे कारणका है। किन्तु न्यायसूत्रकी अनुमान परीक्षाके (२.१.१७) आधारपर प्रो० ज्वालाप्रसादने' पूर्ववत् और शेषवत् का जो अर्थ स्पष्ट किया है। वह प्रो० बसे ठीक उलटा है। अर्थात् पूर्व-कारणका कार्यसे अनुमान करना पूर्ववत् है और कार्यका या उत्तरकालीनका कारणसे अनुमान करना शेषवदनुमान है। वैशेषिकसूत्रमें कार्य हेतुको प्रथम और कारण हेतुको द्वितीयस्थान प्राप्त है ( ९.२.१ ) । उससे पूर्ववत् और शेषवत् के उक्त अर्थकी पुष्टि होती है । १ सूत्रस्थान अ० ११ को ० २१ २ Pre-Dinnāga Buddhist Text. Intro P. XVII. ३१.१.५ । • पूर्वोक व्याक्यान पु० २६२-२६३ । ५ Indian Epistemology p. 171. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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