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________________ प्रमाणके भेद। ऐसा करके उन्होंने सूचित किया है कि दूसरे दार्शनिक जिन प्रत्यक्षादि चार प्रमाणोंको मानते हैं वस्तुतः वे ज्ञानात्मक हैं और गुण है- आत्माके गुण हैं। इस समन्वयसे यह भी फलित हो जाता है कि अज्ञानात्मक सन्निकर्ष इन्द्रिय आदि पदार्थ प्रमाण नहीं हो सकते । अत एव हम देखते है कि सिद्धसेनसे लेकर प्रमाणविवेचक सभी जैनदार्शनिकोंने प्रमाणके लक्षणमें ज्ञानपदको अवश्य स्थान दिया है । इतना होते हुए भी जैन संमत पांच ज्ञानोंमें चार प्रमाणका स्पष्ट समन्वय करनेका प्रयत्न अनुयोगद्वारके कर्ताने नहीं किया है। अर्थात् यहाँ भी प्रमाणचर्चा और पंचज्ञानचर्चाका पार्थक्य सिद्ध ही है। शास्त्रकारने यदि प्रमाणोंको पंचज्ञानोंमें समन्वित करनेका प्रयत्न किया होता तो उनके मतसे अनुमान और उपमान प्रमाण किस ज्ञानमें समाविष्ट है यह अस्पष्ट नहीं रहता । यह बात नीचे के समीकरणसे स्पष्ट होती हैज्ञान प्रमाण १(अ) इन्द्रियजमति प्रत्यक्ष (ब) मनोजन्यमति आगम SCN अवधि मनःपर्यय प्रत्यक्ष केवल अनुमान उपमान इससे साफ है कि ज्ञानपक्षमें मनोजन्य मतिको कौनसा प्रमाण कहा जाय तथा प्रमाणपक्षमें अनुमान और उपमानको कौनसा ज्ञान कहा जाय- यह बात अनुयोगद्वारमें अस्पष्ट है। वस्तुतः देखें तो जैन ज्ञानप्रक्रियाके अनुसार मनोजन्यमति जो कि परोक्ष ज्ञान है वह अनुयोगके प्रमाण वर्णनमें कहीं समावेश नहीं पाता। न्यायादिशासके अनुसार मानस ज्ञान दो प्रकारका है प्रत्यक्ष और परोक्ष । सुख-दुःखादिको विषय करनेवाला मानस ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है और अनुमान उपमान आदि मानसज्ञान परोक्ष कहलाता है । अत एव मनोजन्य मति जो कि जैनोंके मतसे परोक्षज्ञान है उसमें अनुमान और उपमानको अन्तर्भूत करदिया जाय तो उचित ही है । इस प्रकार पंचज्ञानोंका चार प्रमाणोंमें समन्वय घट जाता है । यदि यह अभिप्राय शास्त्रकारका भी है तो कहना होगा कि परप्रसिद्ध चार प्रमाणोंका पंचज्ञानोंके साथ समन्वय करनेकी अस्पष्ट सूचना अनुयोगद्वारसे मिलती है । किन्तु जैनदृष्टिसे प्रमाण विभाग और उसका पंचज्ञानोंमें स्पष्ट समन्वय करनेका श्रेय तो उमाखातीको ही है। . इतनी चर्चासे यह स्पष्ट है कि जैनशास्त्रकारोंने आगमकालमें जैनदृष्टिसे प्रमाणविभागके विषयमें खतन्त्र विचार नहीं किया है किन्तु उस कालमें प्रसिद्ध अन्य दार्शनिकोंके विचारोंका संग्रहमात्र किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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