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________________ २८८ धर्मामृत ( सागार) गृहवासरता भवन्ति । नैष्ठिकब्रह्मचारिणः समधिगतशिखालक्षितशिरोलिङ्गा गणधरसूत्रोपलक्षितवक्षोलिङ्गाः शुक्लरक्तवसनकौपीनकटि लिङ्गाः । स्नातका : भिक्षावृत्तयो देवार्चनपरा भवन्ति ॥१९॥ अथ जिनदर्शने वर्णाश्रमव्यवस्था कूत्रोक्तास्तीति पृच्छन्तं प्रत्याह ब्रह्मचारी गही वानप्रस्थो भिक्षश्च सप्तमे। चत्वारोऽङ्गे क्रियाभेदादुक्ता वर्णववाश्रमाः ॥२०॥ सप्तमे-उपासकाध्ययनाख्ये । उक्तं च-- 'ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थश्च भिक्षुकः । इत्याश्रमास्तु जैनानां सप्तमाङ्गाद् विनिःसृताः ॥' [ ] क्रियाभेदात्--ब्रह्मचारिणस्तावदिमाः क्रियाः--'द्विजसूनोर्गर्भाष्टमे वर्षे जिनालये कृतार्हत्पूजनमौण्ड्यस्य त्रिगणमौजीबन्धसप्तगुणग्रथितयज्ञोपवीतादिलिङ्गविशुद्धे स्थूलहिंसाविरत्यादि-व्रतं ब्रह्मचर्यों पबंहितं गुरुसाक्षिकं धारणीयम् । श्लोका:-- 'शिखी सितांशुकः सान्तर्वासो निर्वेषविक्रियः । व्रतचिह्न दधत्सूत्रं तथोक्तो ब्रह्मचार्यसौ ॥ चरणोचितमन्यच्च नामधेयं तदास्य वै । वृत्तिश्च भिक्षयान्यत्र राजन्यादुद्धवैभवात् ।। सोऽन्तःपुरे चरेत्पात्र्यां नियोग इति केवलम् । तदग्रं देवसात्कृत्य ततोऽन्नं योग्यमाहरेत् ॥' [ महापु. ३८।१०६-१०८ ] अभ्यास करके गृहस्थाश्रम स्वीकार करते हैं। अदीक्षा ब्रह्मचारी किसी प्रकारके वेषके बिना आगमका अभ्यास करके गृहस्थ धर्म अपना लेते हैं। गूढ़ ब्रह्मचारी कुमार अवस्थामें ही मुनिपद धारण करके आगमका अभ्यास करते हैं और फिर बन्धुओंके कहनेसे या परीषहोंको न सह सकनेसे स्वयं ही, या राजाके कहनेसे दिगम्बर रूपको छोड़कर घर बसा लेते हैं। नैष्ठिक ब्रह्मचारी सिरपर चोटी, छाती पर यज्ञोपवीत और कमरमें सफेद या लाल वस्त्रकी लँगोटी लगाते हैं, भिक्षावृत्तिपूर्वक देवपूजामें तत्पर रहते हैं। यह गृहवासी नहीं होते। बचपन में ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याध्ययन करनेवाले कुमार ब्रह्मचारियोंके ये भेद चारित्रसारसे पहले महापुराणमें देखने में नहीं आते । ग्रन्थकारने इन्हें चारित्रसारसे ही लिया है ॥१९॥ जो यह प्रश्न करते हैं कि जिनागममें वर्ण व्यवस्था कहाँ है ? उनको उत्तर देते हैं। उपासकाध्ययन नामक सातवें अंगमें धर्म कर्मके भेदसे ब्राह्मण आदि चार वर्णों की तरह ब्रह्मचारी, गृही, वानप्रस्थ और भिक्षु ये चार आश्रम कहे हैं ॥२०॥ विशेषार्थ-जैसे आगममें क्रियाके भेदसे चार वर्ण कहे हैं वैसे ही क्रियाके भेदसे चार आश्रम कहे हैं । जिस श्रम धातुसे श्रमण शब्द निष्पन्न हुआ है उसीसे आश्रम भी बना है। अतः विचारकोंका मत है कि आश्रम व्यवस्था श्रमणपरम्परासे सम्बद्ध है । अस्तु, सातव उपासकाध्ययन नामक अंगमें ब्रह्मचारी गृहस्थ वानप्रस्थ और भिक्षु ये चार आश्रम कहे हैं। प्रथम ब्रह्मचारीकी क्रिया महापुराणमें इस प्रकार कही है-गर्भसे आठवें वर्ष में जिनालयमें जाकर उसे पूजन करना चाहिए। तथा सिरका मुण्डन कराकर उसकी कमरमें तीन लरकी Dजकी रस्सी बाँधकर सात लरका यज्ञोपवीत पहनाना चाहिए। फिर उसे व्रतधारण कराना १. अयं श्लोकः 'उक्तञ्चोपासकाध्ययने' इति कृत्वा चारित्रसारनाम्नि ग्रन्थे (पृ. २०) उद्धृतः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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