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________________ २७४ धर्मामृत ( सागार ) ननु अमर्षे ॥३६॥ एवं निर्वेदं भावयित्वा परमसामायिकभावनार्थ सप्तश्लोकीमाह इति च प्रतिसंवध्यादुद्योगं मुक्तिवत्मनि । मनोरथा अपि श्रेयोरथाः श्रेयोऽनुबन्धिनः ॥३७॥ इति-वक्ष्यमाणप्राणकायबलास्थिरत्वाद्यनुचिन्तनलक्षणेन प्रकारेण प्रतिसंदध्यात्- पुनः संयोजयेत् । ६ श्रेयोरथाः-मोक्षारूढाः ॥३७॥ ____ अथायुःकायमयत्वाज्जीवितस्य तदपायानुध्यानमुखेन जीवितव्योच्छेदं भावयन् प्रौढोक्त्या स्वार्थसिद्धिभ्रंशं भावयति क्षणे क्षणे गलत्यायुः कायो ह्रसति सौष्ठवात् । ईहे जरां नु मृत्युं नु सध्रीची स्वार्थसिद्धये ॥३८॥ विशेषार्थ-जैसे मुर्दके शरीरमें वस्त्राभूषण पहनाना निरर्थक है क्योंकि उनको भोगनेवाला नहीं है। उसी तरह स्त्री आदि विषयोंसे जो विमुख हो गया है उसका धनोपार्जन भी निरर्थक है । धन विषय-सुखका साधन है यह प्रसिद्ध है । उसमें स्त्रियाँ आलम्बन, विभावरूप होनेसे मुख्य हैं। मकान, बाग, बगीचे वगैरह उद्दीपन विभावरूप होनेसे गौण हैं । अर्थात् विषय-सुखका आलम्बन तो स्त्री ही है। मकान वगैरह तो उसके सहायक होते हैं । जिसको स्त्रीकी ही चाह नहीं, उसके लिए अन्य विषयोंकी चाह निरर्थक है ॥३६।। इस प्रकारसे वैराग्यकी भावना करनेवाले महाश्रावकके परम सामायिककी भावनाके लिए सात श्लोकोंसे कथन करते हैं आगे कहे जानेवाले आयु, कायबल आदिकी क्षणभंगुरताका विचार करनेके द्वारा महाश्रावकको मोक्षके मार्गमें भी उद्योग करना चाहिए अर्थात् केवल संसार आदि वैराग्यका चिन्तन ही नहीं करना चाहिए किन्तु आगे कहे अनुसार मोक्षमार्गमें भी लगना चाहिए । क्योंकि श्रेय अर्थात् मोक्ष ही जिनका रथ है ऐसे मनोरथ भी भव-भवमें अभ्युदयको देनेवाले होते हैं ॥३७॥ विशेषार्थ-जिनकी प्राप्ति अशक्य है ऐसे पदार्थों की अभिलाषाको मनोरथ कहते हैं। जो कुछ आचरण करता नहीं उसके मनोरथ तो स्वप्नमें राज्य पानेके समान निरर्थक हैं ऐसी आशंका करनेवालेके लिए कहते हैं कि अच्छे कार्योंके मनोरथसे भी प्रचुर पुण्यका बन्ध होता है, आचरण करनेकी बातका तो कहना ही क्या है। अतः वे मनोरथ भी मोक्षकी ओर ले जानेवाले होते हैं। कहा भी है'--जिस भावमें मोक्ष प्राप्त करानेकी शक्ति है उससे स्वर्गकी प्राप्ति कुछ भी दूर नहीं है। जो शीघ्र ही भार लेकर दो कोस जा सकता है उसके लिए आधा कोस जाना क्या कठिन है ? ॥३७॥ हमारा जीवन आयु और शरीरके आधार है । अतः आयु और शरीरकी क्षणभंगुरताके चिन्तनके द्वारा जीवनके विनाशका चिन्तन करते हुए स्वार्थसिद्धिकी चिन्ता व्यक्त करते हैं प्रतिक्षण आयुकर्म थोड़ा-थोड़ा करके क्षयको प्राप्त हो रहा है। प्रति समय शरीर १. 'यत्र भावः शिवं दत्ते द्यौः कियदूरवर्तिनी। यो नयत्याशु गव्यूति क्रोशाढ़े कि स सीदति ॥'-इष्टोपदेश-४ श्लो. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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