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________________ शक्य नहीं है, क्योंकि जघन्य स्यानवी जीवों से द्वितीय स्थानवर्ती जीव क्या विशेष हीन हैं, क्या विशेष अधिक हैं, या क्या संख्यातगुणे हैं; इस विषय में उपदेश प्राप्त नहीं है। परम्परोपनिधा का जान लेना भी शक्य नहीं है, क्योंकि अनन्त रोपनिधा का ज्ञात करना सम्भव नहीं हुआ। ४. वेदनाक्षेत्र विधान में क्षेत्र की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की अनुत्कृष्ट वेदना की प्ररूपणा करते हुए उस प्रसंग में धवलाकार ने उत्कृष्ट , अनुत्कृष्ट और जघन्य अनुत्कृष्ट क्षेत्रवेदना के मध्यगत विकल्पों के स्वामियों की प्ररूपणा में इन छह अनुयोगद्वारों का उल्लेख किया हैप्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व । आगे यथाक्रम से इनकी प्ररूपणा करते हुए धवलाकार ने कहा है कि श्रेणि व अवहार इन दो अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा करना शक्य नहीं है, क्योंकि उनके विषय में उपदेश प्राप्त नहीं है।' ५. 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में अवधिज्ञानावरणीय के प्रसंग में अवधिज्ञान के विषय की प्ररूपणा करते हुए धवलाकार कहते हैं कि जघन्य अवधिज्ञान से सम्बद्ध क्षेत्र का कितना विष्कम्भ, कितना उत्सेध और कितना आयाम है; इस विषय में कुछ उपदेश प्राप्त नहीं है। किन्तु प्रतर-धनाकार से स्थापित अवधिज्ञान के क्षेत्र का प्रमाण उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भाग है, इतना उपदेश है। ___ इस प्रकार परम्परागत उपदेश के प्राप्त न होने से धवलाकार ने प्रसंगप्राप्त विषय का स्पष्टीकरण नहीं किया है । उपदेश प्रा त कर जान लेने की प्रेरणा कहीं पर धवलाकार ने उपदेश के न प्राप्त होने पर विवक्षित विषय के सम्बन्ध में स्वयं किसी प्रकार के अभिप्राय को व्यक्त न करते हुए उपदेश प्राप्त करके प्रसंगप्राप्त विषय के जानने व उसके विषय में किसी एक प्रकार के निर्णय करने की प्रेरणा की है । यथा १. स्वयम्भूरमणसमुद्र की बाह्य वेदिका से आगे कुछ अध्वान जाकर तिर्यग्लोक समाप्त हुआ है, इसे पीछे पर्याप्त स्पष्ट किया जा चुका है। इस विषय में धवलाकार ने अपने उपर्युक्त मत को स्पष्ट करके भी अन्त में यह कह दिया है कि अतीन्द्रिय पदार्थों के विषय में छद्मस्थों की कल्पित युक्तियाँ निर्णय करने में सहायक नहीं हो सकती, इसलिए इस विषय में उपवेश प्राप्त करके निर्णय करना चाहिए। २. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी संयतासंयतों के अन्तर की प्ररूपणा में प्रसंगप्राप्त एक शंका के समाधान में धवलाकार ने कहा है कि संज्ञी सम्मूछिम पर्याप्त जीवों में संयमासंयम के समान अवधिज्ञान और उपशम-सम्यवत्व सम्भव नहीं है। आगे प्रासंगिक कुछ अन्य शंका-समाधानपूर्वक अन्त में धवलाकार ने यह भी कह दिया है- अथवा इस विषय में जान करके ही कुछ कहना चाहिए । १. वही, पृ० १०, पृ० २२१-२२ २. धवला, पु० ११, पृ० २७ ३. वही, १३, पृ० ३०३ ४. धवला, पु० ३, पृ० ३३-३८ ५. वही, पु० ५, पृ० ११६-१६ वीरसेनाचार्य को ध्याख्यान-पद्धति / ७४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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