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________________ कहने पर उससे पाँच द्रव्यों के आधारभूत आकाश का ही ग्रहण होता है, अन्य का नहीं; क्योंकि "लोकपूरणगत केवली लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं" ऐसा सूत्र में कहा गया है ।" यदि लोक सात राजुओं के घनप्रमाण न हो तो "लोकपूरणगत केवली लोक के संख्यातवें भाग में रहते हैं" ऐसा कहना पड़ेगा। इसका कारण यह है कि अन्य आचार्यों के द्वारा जिस मृदंगाकार लोक की कल्पना की गयी है उसके प्रमाण को देखते हुए उसका वह संख्यातवां भाग असिद्ध भी नहीं है । इस प्रकार कहते हुए धवलाकार ने आगे गणित प्रक्रिया के आधार से उसका ३२८ प्रमाण १६४- धनराजु निकालकर दिखला भी दिया है जो घनलोक का संख्यातर्वा भाग १३५६ ही होता है । इतना स्पष्ट करते हुए आगे उन्होंने कहा है कि उसको छोड़कर अन्य कोई सात राजुओं के घनप्रमाण लोक नाम का क्षेत्र नहीं है जो छह द्रव्यों के समुदायस्वरूप लोक से भिन्न प्रमाणलोक हो सके । इस प्रकार से धवलाकार ने अन्य आचार्यों के द्वारा प्ररूपित मृदंगाकार लोक को दूषित ठहराकर लोक को सात राजुओं के घन-प्रमाण ( ७७ × ७ = ३४३) सिद्ध किया है । आगे उन्होंने यह भी कहा है कि यदि इस प्रकार के लोक को नहीं ग्रहण किया जाता है तो प्रतरसमुद्घातगत केवली के क्षेत्र को सिद्ध करने के लिए जो दो गाथाएँ कही गयी हैं वे निरर्थक ठहरती हैं, क्योंकि उनमें जिस घनफलप्रमाण का उल्लेख किया गया है वह अन्य प्रकार से सम्भव नहीं है | अभिप्राय यह है कि लोक पूर्व-पश्चिम में नीचे सात राजु, मध्य में एक राजु, ऊपर ब्रह्मकल्प के पास पाँच राजु व अन्त में एक राजु विस्तृत; चौदह राजु ऊँचा और उत्तर-दक्षिण में सर्वत्र सात राजु मोटा है। इस प्रकार के आयतचतुरस्र लोक की पूर्व मान्यता धवलाकार के समक्ष नहीं रही है । फिर भी उन्होंने प्रतरसमुद्घातगत केवली के क्षेत्र को सिद्ध करने के लिए निर्दिष्ट उन दो गाथाओं के आधार पर लोक को उस प्रकार का सिद्ध किया है व उसे ही प्रकृत गाह्य माना है । इस प्रकार से धवलाकार ने प्रतरसमुद्घातगत केवली के क्षेत्र की आधारभूत उपर्युक्त दो गाथाओं की निरर्थकता को बचाने के लिए अन्य आचार्यों के द्वारा माने गये मृदंगाकार लोक का निराकरण करके उसे उक्त प्रकार से आयतचतुरस्र सिद्ध किया है (४) इसी प्रकार का एक प्रसंग आगे स्पर्शानुगम में भी प्राप्त होता है । वहाँ सासादनसम्यग्दृष्टि ज्योतिषी देवों के स्वस्थान क्षेत्र के लाने के प्रसंग में धवलाकार ने स्वयम्भूरमण १. सजोगिकेवली केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा । - सूत्र १, ३, ४ ( पु० ४, पृ० ४८ ) २. मुह-तलसमासअद्धं वुस्सेधगुणं च वेधेण । घणगणिदं जाणेज्जो वेत्तासणसंठिये खेत्तं ॥ मूलं मज्झेण गुणं मुहसहिदद्ध मुस्सेधकदिगुणिदं । घणगणिदं जाणेज्जो मुइंगसंठाणखेत्तम्हि || – पु० ४, पृ० २०-२१ (ये दोनों गाथाएँ जंबूदी० में ११-१०८ व ११-११० गायांकों में उपलब्ध होती हैं ।) ३. इसके लिए धवला, पु० ४, पृ० १० २२ द्रष्टव्य हैं । ७३० / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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