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________________ प्रसंग पु० पृष्ठ १२. १३ ३२०-२१ एसो वि गुरूवएसो चेव, वट्टमाणकाले सुत्ताभावादो। १३. ३२२ सुत्तेण विणा कधमेदं णव्वदे ? अविरुद्धाइरियवयणादो। १४. १४ ४६२ सुत्तेण विणा 'कुदो णव्वदे ? सुत्ताविरुद्धाइरियवयणादो। इस प्रकार धवलाकार ने सूत्र के अभाव में विवक्षित विषय की प्ररूपणा में आचार्यपरम्परागत उपदेश और गुरूपदेश का भी आश्रय लिया है । कुछ प्रसंगों पर उन्होंने विवक्षित विषय का व्याख्यान करते हुए उपदेश के अभाव में प्रायः उसकी प्ररूपणा नहीं की है। यथा (१) णत्थि संपहियकाले उवएसो।-पु० ३, पृ० २३६ (२) तधोवदेसाभावा ।-पु० ६, पृ० २३५ (३) विसिठ्ठवएसाभावादो। -पु० ७, पृ० ३६६ (४) अलद्धोवदेसत्तादो।-पु० ७, पृ० ५०७ (५) अलद्धोवदेसत्तादो।-पु० ६, १२६ (६) तत्थ अणंतरोवणिधा ण सक्कदे णेदुं,त्ति उवदेसाभावादो।-पु० १०, पृ० २२१ (७) तत्थ अणंतरोवणिधा ण सक्कदे णेदुं, "त्ति उवदेसाभावादो।-पु०१०प० २२३ (८) ण च एवं, तहाविहोवदेसाभावादो।-पु० १० १० ५०१ (8) ..'ण सक्कदे णेदुमुवदेसाभावादो ।-पु० ११, पृ० २७ (१०) णत्थि एत्थ उवदेसो।-पु० १३, पृ० ३०३ (११) . 'त्ति ण णव्वदे, उवएसाभावादो। दक्षिण-उत्तर प्रतिपत्ति व पबाइज्जंत-अपवाइज्जत उपदेश जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, धवलाकार के समक्ष आचार्यपरम्परा से चला आया उपदेश रहा है, जिसके बल पर उन्होंने विवक्षित विषय का स्पष्टीकरण किया है। धवला में ऐसे उपदेश का उल्लेख कहीं पर दक्षिणप्रतिपत्ति और कहीं पर पवाइज्जंत (प्रवाहमान) के नाम से भी किया गया है ।' यथा (१) जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम में सूत्रकार ने चार उपशामकों की संख्या का निर्देश प्रवेश की अपेक्षा एक, दो, तीन व अधिक-से-अधिक चौवन तक किया है। काल की अपेक्षा उन्हें संख्यात कहा गया है।-सूत्र १,२,६-१० इस प्रसंग में धवला में कहा गया है कि अपने उत्कृष्ट प्रमाणयुक्त जीवों से सहित सब समय एक साथ नहीं पाये जाते हैं, इसलिए कुछ आचार्य पूर्वोक्त (३०४) प्रमाण से पांच कम करते हैं। इस पांच कम के व्याख्यान को धवलाकार ने पवाइज्जमाण, दक्षिणप्रतिपत्ति व आचार्य-परम्परागत कहा है । इसके विपरीत पूर्वोक्त (३०४) व्याख्यान को उन्होंने अपवाइज्जमाण, वाम (उत्तरप्रतिपत्ति) व आचार्यपरम्परा से अनागत कहा है। १. इसका स्पष्टीकरण पीछे 'ग्रन्थकारोल्लेख' शीर्षक में 'आर्यभक्षु व नागहस्ती' के प्रसंग में भी किया जा चुका है। २. धवला, पु० ३, पृ० ६१-६२ ७२४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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