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________________ (८) 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में व्यंजनावग्रहावरणीय के प्रसंग में तत-वितत आदि शब्दों और भाषा-कुभाषा के विषय में कुछ विचार किया गया है। इस प्रसंग में धवला में यह कहा गया है कि शब्दपुद्गल अपने उत्पत्ति-क्षेत्र से उछलकर दस दिशाओं में जाते हुए उत्कृष्ट रूप से लोक के अन्त तक जाते हैं । इस पर, यह कहाँ से जाना जाता है-ऐसा पूछने पर धवलाकार ने कहा है कि वह सूत्र से अविरुद्ध आचार्य-वचन से जाना जाता है।' (E) इसी 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में आगे अवधिज्ञानावरणीय के प्रसंग में अवधिज्ञान के भेद-प्रभेदों का विचार करते हुए उनमें एकक्षेत्र अवधिज्ञान के श्रीवत्स, कलश व शंख आदि कुछ विशिष्ट स्थानों को ज्ञातव्य कहा गया है। -सूत्र ५,५,५८ इसकी व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि ये संस्थान तिर्यच व मनुष्यों के नाभि के उपरिम भाग में होते हैं, नाभि के नीचे वे नहीं होते हैं; क्योंकि शुभ संस्थानों का शरीर के अधोभाग के साथ विरोध है । तियंच व मनुष्य विभंगज्ञानियों के नाभि के नीचे गिरगिट आदि अशुभ संस्थान होते हैं । आगे उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि इस विषय में कोई सूत्र उपलब्ध नहीं है, गुरु के उपरेशानुसार यह व्याख्यान किया गया है । विभंगज्ञानियों के सम्यक्त्व आदि के फलस्वरूप अवधिज्ञान के उत्पन्न हो जाने पर, वे गिरगिट आदि रूप अशुभ संस्थान नष्ट होकर नाभि के ऊपर शंख आदि शुभ संस्थान हो जाते हैं। इसी प्रकार अवधिज्ञान से पीछे आये हुए विभंगज्ञानियों के भी शुभ संस्थान हटकर अशुभ संस्थान हो जाते हैं, यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए। (१०) यहीं पर उक्त अवधिज्ञान की प्ररूपणा के प्रसंग में "कालो चदुण्ण वुड्ढी" इत्यादि गाथासूत्र प्राप्त हुआ है । धवला में यहाँ इसके शब्दार्थ को स्पष्ट करते हुए आगे यह कहा गया है कि इस गाथा की प्ररूपणा जिस प्रकार वेदनाखण्ड में की गयी है (पु० ६, पृ० २८४०) उसी प्रकार उसकी प्ररूपणा पूर्ण रूप से यहां करनी चाहिए। आगे वहाँ यह सूचना की गयी है कि इस गाथा के अर्थ का सम्बन्ध देशावधि के साथ जोड़ना चाहिए, परमावधि के साथ नहीं। ___ इस पर यह पूछने पर कि वह कहाँ से जाना जाता है, धवलाकार ने कहा है कि वह आचार्यपरम्परागत सूत्र से अविरत व्याख्यान से जाना जाता है । आगे कहा गया है कि परमावधिज्ञान में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की वृद्धि एक साथ होती है, ऐसा कथन करना चाहिए, क्योंकि ऐसा अविरुद्ध आचार्यों का कथन है।' ___ यहीं पर आगे धवला में मनःपर्ययज्ञान के विषय की प्ररूपणा के प्रसंग में यह सूचना की गयी है कि इस प्रकार के ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान के विषयभूत जघन्य उत्कृष्ट द्रव्य के ये विकल्प सूत्र में नहीं हैं, फिर भी हमने उनकी प्ररूपणा पूर्वाचार्यों के उपदेशानुसार की है। १. वही, पु० १३, पृ० २२१-२२ २. धवला, पु० १३, पृ० २६७-६८ ३. , पृ० ३०६-१० ४. धवला, पु० १३, पृ० ३३७ वीरसेनाचार्य को व्याख्यान-पद्धति / ७२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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