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________________ काल का संख्यातवां भाग शेष रहता है उसके संख्यात खण्ड करने पर उनमें से बहमाग को बिताकर एक खण्ड के शेष रहने पर संज्वलनमान के बन्ध का व्युच्छेद होता है। पश्चात् उस एक खण्ड के भी संख्यात खण्ड करने पर, उनमें से बहुत खण्ड जाकर एक खण्ड रहने पर, संज्वलनमाया के बन्ध का व्युच्छेद होता है। इस पर यह पूछने पर कि यह कैसे जाना जाता है, धवलाकार ने कहा है कि वह सूत्र में जो "सेसे सेसे संखेज्जे भागे गंतूण" इस प्रकार से 'सेसे' शब्द की पुनरावृत्ति की गयी है, उससे जाना जाता है। इस पर शंकाकार कहता है कि यह सूत्र कषायप्राभृतसूत्र के साथ विरोध को प्राप्त होता है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यथार्थ में वह कषायप्राभूत के साथ विरोध को प्राप्त होता है, किन्तु 'यही सत्य है, वही सत्य है' इस प्रकार से एकान्ताग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि श्रतकेवलियों अथवा प्रत्यक्षज्ञानियों के बिना वैसा अवधारण करने पर मिथ्यात्व का प्रसंग प्राप्त होता है। आगे फिर यह शंका उठायी गयी है कि सूत्रों में परस्पर विरोध कैसे होता है । इसके उत्तर में कहा गया है कि सूत्रों के उपसंहार अल्पश्रुत के धारक आचार्यों के आधीन रहे हैं, इसलिए उनमें विरोध की सम्भावना देखी जाती है। फिर भी जिस प्रकार अमृतसमुद्र के जल को घड़े आदि में भरने पर भी उसमें अमृतपना बना रहता है, उसी प्रकार इन विरुद्ध प्रतिभासित होने वाले सूत्रों में भी सूत्ररूपता समझनी चाहिए।' इस प्रकार धवलाकार ने यह अभिप्राय प्रकट किया है कि जिस प्रकार अमतसमुद्र के जल को किसी छोटे घड़े आदि में भरने पर भी उसका अमृतपना नष्ट नहीं होता है, उसी प्रकार विशाल सत्रस्वरूप श्रुत का संक्षेप में उपसंहार करने पर भी, उसकी सूत्ररूपता नष्ट नहीं होती है। यह अवश्य है कि अल्पज्ञों के द्वारा किए गये उपसंहार में क्वचित् विरोध की सम्भावना सकती है। पर केवली व श्रुतकेवली के बिना चूंकि उसकी यथार्थता व अयथार्थता का निर्णय करना शक्य नहीं है, इसलिए उसके विषय में 'यह सत्य है और वह असत्य है' ऐसा कदाग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि वैसा करने पर मिथ्यात्व का प्रसंग प्राप्त होता है। (६) वेदनाखण्ड के अन्तर्गत 'कृति' अनुयोगद्वार में प्रसंग प्राप्त होने पर धवलाकार ने कृतिसंचित व नोकृतिसंचित आदिकों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की है। इस प्रसंग में सिद्धों में प्रकृत अल्पबहत्व की कुछ विशेषता को प्रकट करते हुए धवला में यह स्पष्ट किया गया है कि यह अल्पबहत्व सोलह पदवाले अल्पबहुत्व के साथ विरोध को प्राप्त होता है, क्योंकि इसमें सिद्धकाल से सिद्धों का संख्यातगुणत्व नष्ट होकर विशेष अधिकता का प्रसंग प्राप्त होता है। इस प्रकार इस विषय में उपदेश प्राप्त करके किसी एक का निर्णय करना चाहिए। इसी प्रसंग में आगे धधलाकार ने सत्कर्मप्रकृतिप्राभूत को छोड़कर सोलह पद वाले उस अल्पबहुत्वदण्डक को प्रधान करके उसकी प्ररूपणा की है। १. देखिए धवला, पु० ८, पृ० ५६-५७ २. सम्भवतः पूर्वोक्त अल्पबहुत्व सत्कर्मप्रकृतिप्राभूत के अनुसार रहा है। ३. देखिए धवला, पु० ६, पृ० ३१८-२१ (सोलह पद वाला अल्पबहुत्व धवला, पु० ३, पृ० ३०-३१ में देखा जा सकता है।) ७१६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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