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________________ के प्रसंग में सयोगिकेवलियों के अन्तर को औदारिकमिश्र काययोगियों के अन्तर के समान कहा गया है (सूत्र १, ६, १७७) । औदारिक मिश्रकाययोगियों में संयोगिकेवलियों के अन्तर के प्ररूपक ये सूत्र उपलब्ध होते हैं "सजोगिकेवलीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । उक्कस्सेण वासपुधत्तं । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, निरंतरं ।” -सूत्र १, ६, १६६-६८ (५०५, पृ० १ ) इस विवेचन से ऐसा प्रतीत होता है कि धवलाकार ने यतिवृषभाचार्य के मत को प्रधानता देकर दूसरे मत को प्रसंगप्राप्त उन दो गाथाओं के आधार पर सन्दिग्धावस्था में छोड़ दिया है । (३) क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत 'भागाभाग' अनुयोगद्वार में सामान्य, पर्याप्त व अपर्याप्त अवस्था-युक्त सूक्ष्मवनस्पतिकायिक और सूक्ष्मनिगोद जीवों के भागाभाग के प्ररूपक तीन सूत्र उपलब्ध होते हैं । "सुहुमवणफदिकाइया सुहुमणिगोदजीवा सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ।। २६ ।। " "सुहुमवणप्फदिकाइय-सुहुमणिगोदजीवपज्जत्ता सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ।। ३१ ।। " "सुहुमवणप्फादिकाइय-सुहु मणिगोदजीव अपज्जत्ता सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? ||३३|| " इन तीन सूत्रों में सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों से सूक्ष्म निगोद जीवों का पृथक उल्लेख किया गया है । इस प्रसंग में धवलाकार ने सूत्र ३२ की व्याख्या करते हुए यह कहा है कि यहाँ सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों को कहकर आगे सूक्ष्म निगोद जीवों का उल्लेख पृथक से किया गया है । इससे जाना जाता है कि सब सूक्ष्म वनस्पतिकायिक ही सूक्ष्म निगोदजीव नहीं होते हैं । इस पर वहाँ यह शंका उत्पन्न हुई है कि यदि ऐसा है तो "सब सूक्ष्म वनस्पतिकायिक निगोद ही होते हैं" यह जो कहा गया है, उसके साथ विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है । इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि उसके साथ कुछ विरोध नहीं होगा, क्योंकि सूक्ष्म निगोद सूक्ष्म वनस्पतिकायिक ही होते हैं, ऐसा वहाँ अवधारण नहीं किया गया है । इसे धवला में आगे अन्यत्र भी शंका-समाधानपूर्वक स्पष्ट किया गया है ।" यह ध्यान रहे कि आगे 'बन्धन' अनुयोगद्वार में शरीरिशरीर- प्ररूपणा के प्रसंग में यह एक सूत्र उपलब्ध होता है “तत्थ जे ते साधारणसरीरा ते णियमा वणप्पदिकाइया [ चेवे त्ति ] | अवसेसा पत्तेयसरीरा ।" --सूत्र १२०, (पु०१४, पृ० २२५ ) जैसाकि ऊपर शंकाकार ने कहा है, इस सूत्र का भी यही अभिप्राय है कि साधारणशरीर ( निगोदजीव) सब वनस्पतिकायिक ही होते हैं, उनसे पृथक् नहीं होते । आगे सूत्र ३४ की व्याख्या के प्रसंग में पुनः शंका उठाते हुए यह कहा गया है कि 'निगोद सब वनस्पतिकायिक ही होते हैं, अन्य नहीं' इस अभिप्राय को व्यक्त करने वाले कुछ भागाभाग सूत्र स्थित हैं । सूक्ष्म वनस्पतिकायिक भागाभाग सम्बन्धी उन तीनों ही सूत्रों में निगोद जीवों का निर्देश नहीं किया गया है। इसलिए उन सूत्रों के साथ इन सूत्रों (२६, ३१ व ३३ ) का विरोध होने वाला है । इसके समाधान में धवलाकार कहते हैं कि यदि ऐसा है तो उपदेश को प्राप्त कर 'यह सूत्र १. देखिए धवला, पु० ७, पृ० ५०४-६ ७१४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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