SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 751
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की विषय हैं, इसलिए उपचार से उन्हें 'अनन्त' कहा जाता है। व्याख्यान से जो अनन्तता का व्यवहार प्रसिद्ध है, उससे इस नहीं है ।" दूसरा उल्लेख उनका वेदनापरिमाणविधान अनुयोगद्वार में किया गया है । वहाँ तीर्थंकर प्रकृति की साधिक तेतीस सागरोपम मात्र समयप्रबद्धार्थता के प्रसंग में कहा गया है कि तीर्थकर प्रकृति का बन्ध अपूर्वकरण के सातवें भाग के प्रथम समय से आगे नहीं होता है, क्योंकि अपूर्वकरण के अन्तिम सातवें भाग के प्रथम समय में उसके बन्ध का व्युच्छेद हो जाता है, ऐसा सूत्राचार्य का वचन उपलब्ध होता है। * २०. सेचीय व्याख्यानाचार्य वर्गणाखण्ड के अन्तर्गत 'बन्धन' अनुयोगद्वार में बादर निगोदवर्गणा के प्रसंग में धवलाकार ने कहा है कि हम अन्तिम समयवर्ती क्षीणकषाय क्षपक को छोड़कर व इस द्विचरम समयवर्ती क्षीणकषाय क्षपक को ग्रहण करके यहाँ रहने वाले सब जीवों के औदारिक, तैजस और कार्मण शरीरों के छह पुंजों को पृथक्-पृथक् स्थापित करके सेचीय व्याख्यानाचार्य द्वारा प्ररूपित स्थानप्ररूपणा को कहते हैं । यहाँ व्याख्यानाचार्य के विशेषणभूत 'सेचीय” शब्द से क्या अभिप्रेत रहा है, यह ज्ञात नहीं होता । इस कारण उनमें सूत्राचार्य के व्याख्यान का कुछ भी विरोध कषायप्राभृत में 'चारित्र मोहक्षपणा' अधिकार के प्रसंग में यह एक चूर्णिसूत्र उपलब्ध होता है "णवरि सेचीयादो जदिबादरसांपराइयकिट्टीओ करेदि तत्थ पदेसग्गं विसेसहीणं होज्ज ।” - क०पा० सुत्त, पृ० ८६६-६७ जयधवलाकार ने 'सेचीय' का अर्थ सम्भवसत्य किया है । यथा – “सेचीयादो सेचीयं संभवमस्सियू णसंभवसच्च मस्सियूण ।" १. धवला, पु० ४, पृ० ३३८-३६ २. वही, पु० १२, पृ० ४६४ ३. वही, पु० १४, पृ० १०१ ४. यह शब्द इसके पूर्व पु० १५, पृ० २८६ पर भी उपलब्ध होता है । यथाउदओदुविहो पओअसा संचीयादो च । Jain Education International For Private & Personal Use Only प्रन्थका रोल्लेख / ६६७ www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy