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________________ जान लेना चाहते हैं उनके लिए आपके इस गुण-कीर्तन के आश्रय से हित के खोजने का उपाय बता दिया है। इतर दर्शनों के अध्येता-पूर्वनिर्दिष्ट आप्तमीमांसा में आगे आ० समन्तभद्र ने भाव-अभाव, भेद-अभेद, नित्य-अनित्य तथा कार्य-कारण आदि के भेद-अभेद-विषयक एकान्त का जिस बुद्धिमत्ता से निराकरण किया है व अनेकान्तरूपता को प्रस्थापित किया है, वह उन सर्वथकान्तवादों के गम्भीर अध्ययन के बिना सम्भव नहीं था। इससे सिद्ध है कि वे इतर दर्शनों के भी गम्भीर अध्येता रहे हैं। ___जनशासनप्रभावक-आ० समन्तभद्र ने अपने उत्कृष्ट ज्ञान, तप और संयम आदि के द्वारा जैनशासन की उल्लेखनीय प्रभावना की है। भस्मक रोग से आक्रान्त होने पर उन्होंने जिस साहस के साथ उसे सहन किया तथा जनशासन पर अडिग श्रद्धा रखते हुए उसे जिस कुशलता से शान्त किया और उपद्रव के निर्मित होने पर जिनभक्ति के बल से उसे दूर करते हुए अनेक कुमार्गगामियों के लिए सन्मार्ग की ओर आकर्षित किया; यह सब जैनशासन की प्रभावना का ही कारण हुआ है। इसके अतिरिक्त उनकी देवागमस्तोत्र आदि कृतियां भी जैनशासन की प्रभावक बनी हुई हैं । समन्तभद्र ने जनशासन की प्रभावना के लक्षण में स्वयं भी यह कहा है कि जैनशासन-विषयक अज्ञानरूप अन्धकार को हटाकर जिन-शासन की महिमा को प्रकाश में लाना, यह प्रभावना का लक्षण है। वाद-विजेता-जिन-शासन पर अकाट्य श्रद्धा रहने के कारण समन्तभद्राचार्य ने अपने गम्भीर ज्ञान के बल पर अनेक वादों में विजय प्राप्त की है। समीचीन मार्ग के प्रकाशन के हेतु वे वाद के लिए भी उद्यत रहते थे। इसके लिए वे अनेक नगरों में पहुंचे थे व वाद करके उसमें विजय प्राप्त की थी। इसके लिए यहाँ केवल एक उदाहरश दिया जाता है। श्रवणबेलगोल के एक शिलालेख (५४) के अनुसार करहाटक (करहाड) पहुंचने पर समन्तभद्र ने वहाँ के राजा को अपना परिचय इस प्रकार दिया है पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता पश्चान्मालव-सिन्धु-ठक्कविषये कांचीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभट विद्योत्कटं संकटं वावार्थी विचराम्यहं मरपते शार्दूलविक्रीडितम् ।। तदनुसार वे वाद के लिए उत्सुक होकर पाटलिपुत्र (पटना), मालवा, सिन्धु, ठक्कदेश, कांचीपुर, वैदिश (विदिशा) और करहाटक में पहुंचे थे। उनके लिए वाद करना सिंह के खेल के समान रहा है । यथार्थ तत्त्व के वेत्ता होने से उन्हें वाद में कहीं संकट उपस्थित नहीं हुआ, सर्वत्र उन्होंने उसमें विजय ही प्राप्त की। उन्हें वाद में रुचि रही है, यह उनके इन स्तुतिवाक्यों से भी ध्वनित है पुनातु घेतो मम नाभिमन्दनो जिनो जितक्षुल्लकवादिशासनः ।।- स्वयम्भू०, ५ स्वपक्षसौस्थित्यमदावलिप्ता वाक्-सिंहनादेविमदा बभूवुः। प्रवादिनो यस्य मदागण्डा गजा यथा केशरिणो निनावैः ।।-स्वयम्भू० ३८ १. आप्तमीमांसा कारिका : आदि अन्त तक । २. रत्नकरण्डश्रावकाचार, १८ प्रन्थकारोल्लेख / ६६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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