SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 733
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्याख्यान आर्यमा और नागहस्ती को किया ? इससे तो वे गुणधर के समकालीन ठहरते हैं ? -श्लोक १५४ इन्द्रनन्दी के समक्ष धवला व जयधवला टीकाएँ रही हैं व उनका उन्होंने परिशीलन किया है, यह श्रुतावतार-विषयक उस चर्चा से स्पष्ट नहीं होता। सम्भव है उन्होंने परम्परागत श्रुति के अनुसार श्रुतावतार की प्ररूपणा की हो । आगे (श्लोक १५१) उन्होंने गुणधर और धरसेन के पूर्वापरवर्तित्व की अजानकारी के विषय में संकेत भी ऐसा ही किया है। आ० वीरसेन ने धवला के प्रारम्भ में जो मंगल किया है उसमें उन्होंने धरसेन के पश्चात् पुष्पदन्त की स्तुति करते हुए उन्हें पाप के विनाशक, मिथ्यानयरूप अन्धकार को नष्ट करने के लिए सूर्य के समान, मोक्षमार्ग के कण्टकस्वरूप मिथ्यात्व आदि को दूर करने वाले, ऋषि समिति के अधिपति और इन्द्रियों का दमन करने वाले कहा है।' प्रकृत मंगलाचरण में धवलाकार ने प्रथमतः आ० पुष्पदन्त को और तत्पश्चात् भूतबलि भट्टारक को नमस्कार किया है। इससे पुष्पदन्त भूतबलि से ज्येष्ठ रहे हैं। उनके ज्येष्ठत्व का एक कारण यह भी हो सकता है कि षट्खण्डागम को उन्हीं ने प्रारम्भ किया है। इसके अतिरिक्त उपर्युक्त नन्दि-आम्नाय की प्राकृत पट्टावली में यह स्पष्ट कहा गया है कि अन्तिम जिन (महावीर) के मुक्त होने के पश्चात् ५६५ वर्ष बीतने पर ये पांच जन एक अंग के धारक उत्पन्न हुए----अर्हद्बली, माघनन्दी, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि । इनका काल वहाँ क्रम से २८, २१, १६, ३० और २० कहा गया है। इस पट्टावली के अनुसार पुष्पदन्त की भूतबलि से ज्येष्ठता स्पष्ट है व उनका समय वीर-निर्वाण के पश्चात् ६३४-६३ (३०) वर्ष ठहरता है। ___ इ० श्रुतावतार में लोहाचार्य के आगे अंग-पूर्वो के देशधर इन चार आरतीय आचार्यों का उल्लेख किया गया है-विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त और अहंद्दत्त । यथा विनयधरः श्रीदत्तः शिवदत्तोऽन्योऽर्हद्दत्तनामैते । आरातीया यतयस्ततोऽभवन्नंग-पूर्वधराः ॥४॥ यहाँ इनके समय का कुछ उल्लेख नहीं किया गया है। अर्हद्दत्त के आगे यहाँ पूर्वदेश के मध्यगत पुण्ड्रवर्धनपुर में होनेवाले अर्हबली नामक मुनि का उल्लेख किया गया है, जो सब अंग-पूर्वो के एकदेश के ज्ञाता रहे हैं। इनका उल्लेख पीछे संघप्रतिष्ठापक के रूप में किया जा चुका है। पट्टावली में भूल प्रस्तुत पट्टावली में कुछ भूलें दृष्टिगोचर होती हैं। वे मूल में ही रही हैं या उसकी प्रतिलिपि करते समय हुई हैं, कहा नहीं जा सकता। यथा (१) यहाँ गाथा ७ में कहा गया है कि वीर-निर्वाण से १६२ वर्षों के बीतने पर ग्यारह मुनीन्द्र दस पूर्वो के धारक उत्पन्न हुए। यहाँ 'दशपूर्वधरों' से ग्यारह अंगों और दस पूर्वो के १. धवला, पु० १, पृ० ७०-७१ तथा प्रारम्भ में मंगल, गाथा ५-६ २. ष०ख० पु. १ की प्रस्तावना पृ० २६, गाथा १५-१६ ३. ष०ख० पु०१ की प्रस्तावना, पृ० २६ पर गा० १५-१७ प्रन्थकारोल्लेख /६७९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy