SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 727
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३) गुणधराचार्य की रचना कसायपाहुड निश्चित ही षट्खण्डागम आदि अन्य कर्मग्रन्थों से संक्षिप्त और गहन है, इसमें विवाद नहीं है । किन्तु कसायपाहुड बीजपदों से युक्त है और षट्खण्डागम बीजपदों से युक्त नहीं है, यह कहना उचित नहीं दिखता। यथार्थ में बीजपदों से युक्त न षट्खण्डागम है और न ही कसायपाहुड। कारण यह कि जो शब्दरचना में संक्षिप्त पर अनन्त अर्थ के बोधक अनेक लिंगों से संगत हो, वह बीजपद कहलाता है। ऐसे बीजपदों से युक्त तो द्वादशांगश्रुत ही सम्भव है, जिसके प्ररूपक तीथंकरों को अर्थकर्ता कहा गया है। उन बीजपदों में अन्तहित अर्थ के प्ररूपक उन बारह अंगों के प्रणेता गणधर बीजपदों के व्याख्याता होते हैं, कर्ता वे भी नहीं होते।' ___ इस प्रकार की आगमव्यवस्था के होने पर कसायपाहुड को बीजपदयुक्त नहीं कहा जा सकता है। वस्तुतः कसायपाहुड और षट्खण्डागम को तो सूत्र भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि तीर्थकर के मुख से निकले हुए बीजपद को ही सूत्र कहा जाता है। तदनुसार तो गणधर भी सूत्रकार नहीं हैं, वे केवल सूत्र के व्याख्याता हैं । यह ऊपर के ही कथन से स्पष्ट हो जाता है। इस विवेचन का अभिप्राय यह न समझिए कि मैं कसायपाहुड को षट्खण्डागम से पश्चातकालीन सिद्ध करना चाहता हूँ। यथार्थ में कसायपाहुड की भाषा, शब्दसौष्ठव और अर्थगम्भीरता को देखते हुए वह कदाचित् षट्खण्डागम से पूर्ववर्ती हो सकता है, पर कितने पूर्व का है, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता। (४) अर्हबली के द्वारा नन्दी, वीर, सेन और भद्र आदि जिन संघों की स्थापना की गयी है उनमें एक 'गणधरसंघ' भी है। पर उसकी स्थापना श्रुत के महान् प्रतिष्ठापक उन गणधर आचार्य के नाम पर की गयी है, ऐसा प्रतीत नहीं होता। इसके लिए कुछ प्रमाण भी उपलब्ध नहीं है। उसे प्रतिष्ठित करते हुए इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार में यह कहा गया है कि जो यतिजन शाल्मलि वृक्ष के नीचे से आये थे, उनमें से कुछ को 'गुणधर' और कुछ को 'गप्त' के नाम से योजित किया। आगे इस श्रुतावतार में 'उक्तं च' यह कहकर एक श्लोक (६६) को उद्धृत करते हुए उसके द्वारा उन विविध संघों की स्थापना की पुष्टि की गयी है। यहाँ यह स्मरणीय है कि अहंबली के द्वारा उन संघों की स्थापना स्थानति शेष से और वक्षविशेष के नीचे से आने की प्रमुखता से की गयी है, किसी शूलधर या विशेष के नाम पर या उनका अनुसरण करने के कारण नहीं की गयी है। यह भी विचारणीय है कि एक ही स्थान से आने वालों को पृथक्-पृथक् दो-दो संघों में क्यों विभक्त किया १. संखित्तसद्दरयणमणंतत्थावगमहेदुभूदाणेगलिंगसंगमं बीजपदं णाम । सिमणेयाणं बीज पदाणं दुवालसंगप्पयाणमट्ठारस-सत्तसयभास-कुभासरूवाणं परूवओ जत्थकत्तारो णाम. बीजपदणिलीणत्थपरूवयाणं दुवालसंगाण कारओ गणहरभडारओ गंथकत्तारोत्ति अब्भुव गमादो। बीजपदाणं वक्खाणओ त्ति वुत्तं होदि।-धवला, पु० ६, पृ० १२७ २. .... इदि वयणादो तित्थयरवयणविणिग्गयबीजपदं सुत्तं णाम । -धवला, पु० ६, पृ० २५६ ३. इ० श्रुतावतार ८५.६ प्रन्थकारोल्लेख / ६७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy