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________________ सचना करते हुए धवला में 'तेसि गाहाओ' ऐसा कहकर अन्य कुछ गाथाओं को उद्धृत किया गया है। ये गाथाएँ सर्वार्थ सिद्धि में 'उक्तं च' के साथ उद्धत की गयी हैं।' (२) वर्गणाखण्ड के अन्तर्गत 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में 'एकक्षेत्र' अवधिज्ञान की प्ररूपणा के प्रसंग में क्षण-लव आदि कालभेदों की प्ररूपणा करते हुए धवला में 'वुत्तं च' कहकर "पुटवस्स परिमाण" इत्यादि एक गाथा को उद्धृत किया गया है । यह गाथा सर्वार्थ सिद्धि में 'तस्याश्च (स्थितेश्च) सम्बन्धे गाथां पठन्ति' ऐसी सूचना करते हुए उद्धृत की गयी है। उक्त गाथा 'बृहत्संग्रहिणी (३१६), ज्योतिष्करण्डक (६३) और जीवसमास (११३) में भी कुछ पाठभेद के साथ उपलब्ध होती है। ३१. सौन्दरानन्द महाकाव्य --जीवस्थान-चूलिका के अन्तर्गत 'गति-आगति' चूलिका (6) में भवनवासी आदि देवों में से आकर मनुष्यों में उत्पन्न हुए मनुष्य कितने गुणों को उत्पन्न कर सकते हैं, इसे स्पष्ट करते हुए उस प्रसंग में "दीपो यथा निर्व तिमभ्युपेतो" आदि दो पद्यों को धवला में उद्धत करके यह कहा गया है कि इस प्रकार स्वरूप के विनाश को जो बौद्धों ने मोक्ष । माना है, उनके मत के निरासार्थ सूत्र (६,६-६,२३३) में 'सिद्ध्यन्ति' ऐसा कहा गया है। ये दोनों पद्य सौन्दरानन्द महाकाव्य में पाये जाते हैं। विशेष इतना है कि वहां 'जीवस्तथा' के स्थान में 'एवं कृती' पाठभेद है। ३२. स्थानांग-जीवस्थान-सत्प्ररूपणा में प्रसंगप्राप्त गति-इन्द्रियादि मार्गणाओं के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए धवला में योग के स्वरूप का निर्देश तीन प्रकार से किया गया है और अन्त में 'उक्तं च' कहकर इस गाथा को उद्धृत किया गया है मणसा वचसा काएण चावि जुत्तस्स विरियपरिणामो। जीवस्सप्पणियोओ जोगो त्ति जिणेहि णिद्दिवो ।। यह गाथा कुछ थोड़े से परिवर्तन के साथ स्थानांग में इस प्रकार उपलब्ध होती है मणसा वयसा काएण वावि जुत्तस्स विरियपरिणामो। जीवस्स अप्पणिज्जो स जोगसन्नो जिणक्खाओ ॥५ उक्त दोनों गाथाएँ शब्द व अर्थ से प्रायः समान हैं। उनमें जो थोड़ा सा शब्द-परिवर्तन हुआ है वह लिपिदोष से भी सम्भव है। जैसे.-'चावि' व 'वावि' तथा 'प्पणियोओ' व 'अप्प. णिज्जो'। ३३. स्वयम्भूस्तोत्र-'कृति' अनुयोगद्वार में नयप्ररूपणा का उपसंहार करते हुए धवला में कहा गया है कि ये सभी नय वस्तुस्वरूप का एकान्तरूप में अवधारण न करने पर सम्यग्दृष्टि -समीचीन नय-होते हैं, क्योंकि वसी अवस्था में उनके द्वारा प्रतिपक्ष का निराकरण नहीं किया जाता है। इसके विपरीत वे ही दुराग्रहपूर्वक वस्तु का अवधारण करने पर मिथ्यादृष्टि १. देखिए धवला, पु० ४, पृ० ३३३ और स०सि० २-१० २. देखिए धवला, पु० १३, पृ० ३०० और स०सि० ३-३१ ३. देखिए धवला, पु० ६, पृ० ४६७ और सौन्दरा० १६, २८-२९ ४. देखिए धवला, पु० १, पृ० १४० ५. स्थानांग, पृ० १०१ अनिदिष्टनाम प्रन्थ/६४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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