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________________ में कुशल हैं। अप्रकट रूप में यहाँ 'जदिवसहं' द्वारा 'यतिवृषभ' इस नाम को भी सम्भवतः सूचित किया गया है । गुण से नाम के एकदेश के रूप में आचार्य 'गुणधर' का भी स्मरण करना सम्भव है। दूसरी गाथा का अर्थ बैठाना कुछ कठिन है । पर जैसी कसायपाहुडसुत्त की प्रस्तावना में पं० हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्री ने कल्पना की है, तदनुसार 'चुण्णिसरूवत्थाढ] करणसरूवपमाणं' इस पाठ को लेकर यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि आठ करणस्वरूप कम्मपयडि या कर्मप्रकृति की चूणि का जितना प्रमाण है, उतना ही आठ हजार ग्रन्थप्रमाण तिलोयपण्णत्ती ___इस सम्बन्ध में पं० हीरालाल जी ने यह अभिप्राय प्रकट किया है कि बन्धन व संक्रमण आदि आठ करणस्वरूप जो शिवशर्मसूरि-विरचित कम्मपयडि है उस पर एक चूणि उपलब्ध है जो अनिर्दिष्ट नाम से प्रकाशित भी हो चुकी है । उसके रचयिता वे ही यतिवृषभाचार्य हैं, जिन्होंने कसायपाहुड पर चूर्णिसूत्र लिखे हैं। इसके स्पष्टीकरण में पं० हीरालाल जी ने कसायपाहुउचूर्ण और कम्मपडिणि दोनों से कुछ उद्धरणों को लेकर उनमें शब्दार्थ से समानता को प्रकट किया है। उनके उपर्युक्त स्पष्टीकरण में कुछ बल तो है, पर यथार्थ स्थिति वैसी रही है, यह सन्देह से रहित नहीं है।' इससे भी तिलोयपण्णत्ती के रचयिता आ० यतिवृषभ हैं, यह सिद्ध नहीं होता। आ० यतिवृषभ के द्वारा कसायपाहुड पर चूणि लिखी गयी है, यह निश्चित है। आ० वीरसेन ने धवला और जयधवला दोनों में यह स्पष्ट किया है कि गुणधराचार्य द्वारा विरचित कसायपाहड आचार्य-परम्परा से आकर आर्यमंक्षु और नागहस्ति भट्टारक को प्राप्त हुआ। इन दोनों ने क्रम से उसका व्याख्यान यतिवृषभ भट्टारक को किया और उन यतिवृषभ ने उसे चणिसूत्र में लिखा। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि चूर्णिसूत्रों को रचते हुए यतिवृषभाचार्य ने उनके प्रारम्भ में, मध्य में या अन्त में कहीं कुछ मंगल नहीं किया है। किन्तु उपलब्ध तिलोयपण्णत्ती के प्रारम्भ में सिद्ध व अरहन्त आदि पाँच गुरुओं को और अन्त में ऋषभ जिनेन्द्र को नमस्कार किया गया है । तत्पश्चात् प्रत्येक महाधिकार के आदि व अन्त में क्रम से अजितादि जिनेन्द्रों में से एक-एक को नमस्कार किया गया है । अन्तिम नौवें अधिकार के अन्त में शेष रहे कंथ आदि आठ जिनेन्द्रों को नमस्कार किया गया है।। इस मंगल की स्थिति को देखते हुए चूर्णिसूत्रों के रचयिता यतिवृषभाचार्य ही तिलोयपण्णत्ती के रचयिता हैं, यह सन्देहास्पद है। इस प्रकार तिलोयपण्णत्ती के कर्तृत्व के विषय में अन्तिम किसी निर्णय के न होने पर भी १. 'कसायपाहुडसुत्त', प्रस्तावना, पृ० ३८-४६ २. गुणहरवयणविणिग्गयगाहाणत्थोऽवहारियो सव्वो। जेणज्जमंखुणा सो सणागहत्थी वरं देऊ ॥ जो अज्जमखुसीसो अंतेवासी वि णागहत्थिस्स । सो वित्तिसुत्तकत्ता जइवसहो मे वरं देऊ ।।-जयध०, प्रारम्भिक मंगल, गा० ७-८ (धवला पु० १२, पृ० २३१-३२ का प्रसंग भी द्रष्टव्य है।) अनिदिष्ट नाम ग्रन्थ / ६२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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