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________________ मास, द्वितीय मत १४७६३ वर्ष, तृतीय मत ७६६५ वर्ष व ५ मास । ___ ध्यान रहे कि इन मतभेदों का उल्लेख धवलाकार ने अन्यत्र से उद्धृत गाथाओं के द्वारा किया है। शक राजा के काल से सम्बन्धित इन मतभेदों का उल्लेख तिलोयपण्णत्ती में इस प्रकार किया गया है प्रथम मत ४६१ वर्ष, द्वितीय ६७८५ वर्ष ५ मास, तृतीय १४७६३ वर्ष, चतुर्थ ६०५ वर्ष ५ मास।' उपर्युक्त मतभेदों के प्रदर्शन में विशेषता यह रही है कि धवला में जहाँ तीन मतभेदों को प्रकट किया गया है वहां तिलोयपण्णत्ती में चार मतभेदों को प्रकट किया गया है। उनमें ६०५ वर्ष ५ मास और १४७६३ वर्ष ये दो मतभेद तो दोनों ग्रन्थों में समान हैं। किन्तु ७६६५ वर्ष व ५ मास तथा ६७८५ वर्ष व ५ मास, यह मत दोनों ग्रन्थों में कुछ भिन्न है (कदाचित् इस मतभेद में प्रतिलेखक की असावधानी से हुआ अंकव्यत्यास भी कारण हो सकता है। ६ का अंक कई रूपों में लिखा जाता है ।) विचारणीय समस्या उपर्युक्त दोनों ग्रन्थगत इस शब्दार्थ-विषयक समानता और असमानता को देखते हुए यह निर्णय करना शक्य नहीं है कि तिलोयपण्णत्ती का वर्तमान रूप धवलाकार के समक्ष रहा है और उन्होंने अपनी इस महत्त्वपूर्ण टीका की रचना में उसका उपयोग भी किया है। ऐसा निर्णय करने में कुछ बाधक कारण हैं जो इस प्रकार हैं-- (१) जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम में मिथ्यादृष्टियों का प्रमाण क्षेत्र को अपेक्षा अनन्तानन्त लोक कहा गया है।---सूत्र १,२,४ उस संदर्भ में लोक के स्वरूप को धवला में स्पष्ट किया गया है। इस प्रसंग में यह पूछने पर कि तिर्यग्लोक की समाप्ति कहाँ होती है, उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि असंख्यात द्वीप-समुद्रों से रोके गये क्षेत्र से आगे संख्यातगणे योजन जाकर तिर्यग्लोक की समाप्ति हुई है। इस पर वहाँ शंका की गयी है कि यह कहाँ से जाना जाता है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि वह ज्योतिषी देवों के दो सौ छप्पन अंगुलों के वर्गप्रमाण भागहार के प्रतिपादक सूत्र से और तिलोयपण्णत्ती के इस सूत्र से जाना जाता है दुगुण-दुगुणो दुवग्गो णिरंतरो तिरियलोगेत्ति। धवलाकार ने इसे 'तिलोयपण्णत्तिसुत्त' कहा है। इसे ही या इसी प्रकार की एक अन्य गाथा को धवलाकार ने आगे 'स्पर्शनानुगम' में चन्द्रसूर्यबिम्बों की संख्या के लाने के प्रसंग में इस प्रकार उद्धृत किया है चंदाइच्च-गहेहि चेवं णक्खत्त-ताररूवेहि । दुगुण-दुगुणेहि णीरंतरेहि दुवग्गो तिरियलोगो ।।-धवला पु० ४, पृ० १५१ किन्तु यहाँ किसी ग्रन्थ के नाम का उल्लेख नहीं किया गया है । १. देखिए धवला, पु० ६, पृ० १३२-३३ और ति०प० १,४,१४६६-६६ अनिदिष्टनाम प्रन्थ / ६११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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