SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 665
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हैं, सूक्ष्म नहीं हैं । इसी प्रसंग में वहाँ यह पूछने पर कि वे पृथिवीकायिक आदि जीव कौन हैं, इसका उत्तर देते हुए धवला में छह गाथाएँ उद्धृत की गयी हैं ।" उनमें प्रथम गाथा इस प्रकार हैपुढवी य सक्करा वालुवा य उवले सिलादि छत्तीसा । पुढवीमया हु जीवा णिद्दिट्ठा जिणर्वारिदेहि ॥ आचारांग नियुक्ति में जिन गाथाओं में पृथिवी के उन छत्तीस भेदों का नाम-निर्देश किया गया है, उनमें प्रथम गाथा इस प्रकार है पुढवीय सक्का वालुगा य उवले सिला य लोणूसे । अब त सीसय रुप्प सुवण्णे य वइरे य ॥ इन दोनों गाथाओं का पूर्वार्ध समान है । विशेषता यह रही है कि आचारांगनिर्युक्ति में जहाँ 'लोणसे' (लोण ऊष) के आगे उक्त छत्तीस भेदों में शेष सभी का नामोल्लेख कर दिया गया है वहाँ धवला में उद्धृत उस गाथा में 'सिलादि छत्तीसा' कहकर सिला के आगे 'आदि' शब्द के द्वारा शेष भेदों की सूचना मात्र की गयी है । 3 (३) धवला में उद्धृत उन गाथाओं में आगे की तीन गाथाओं में क्रम से जलकायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों के भेदों का निर्देश किया गया है । * इन जलकायिक आदि जीवों के भेदों की निर्देशक तीन गाथाएँ आचारांगनिर्युक्ति में भी उपलब्ध होती हैं। दोनों ग्रन्थों में निर्दिष्ट वे भेद प्रायः शब्दश: समान हैं । उन भेदों की प्ररूपक ऐसी ही तीन गाथाएँ मूलाचार में भी उपलब्ध होती हैं । मूलाचार और आचारांगनिर्युक्तिगत इन गाथाओं में विशेषता यह रही है कि इनके पूर्वार्ध उन भेदों का उल्लेख किया गया हैं और उत्तरार्ध में आचारांगनियुक्ति में जहाँ 'ये पाँच प्रकार के अप्कायिक (तेजस्कायिक व वायुकायिक) विधान वर्णित हैं' ऐसा कहा गया है वहाँ मूलाचार में 'उनको अप्काय (तेजस्काय व वायुकाय) जीव जानकर उनका परिहार करना चाहिए, ऐसा कहा गया गया है। इस प्रकार का पाठभेद बुद्धिपुरस्सर ही हुआ दिखता है । यथा बायर आउविहाणा पंचविहा वण्णिया एए ॥ आचा०नि० १०८ ते जाण आउ जीवा जाणित्ता परिहरे दव्वा ।। - मूला० ५ १३ आगे तेजस्काय के प्रसंग में 'आउ' के स्थान पर 'तेउ' और वायु के प्रसंग में 'वाउ' शब्द १. धवला, पु० १, पृ० २७२-७४ २. देखिए आचा०नि०गा० ७३ ७६ । ये ३६ भेद मूलाचार (५, ६-१२), तिलोयपण्णत्ती (२, ११-१४) और जीवसमास ( २७-३०) में प्राय: समान रूप में उपलब्ध होते हैं । प्रज्ञापना (२४,८-११) में ३६ के स्थान में ४० भेदों का नामनिर्देश किया गया है । ३. धवला, पु० १, पृ० २७२ ४. धवला, पु० १, पृ० २७३ ५. आचा०नि० १०८, ११८ व १६६ ६. मूलाचार ५, १३-१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only अनिर्दिष्ट नाम ग्रन्थ / ६११ www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy