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________________ समय में नीचे सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न होनेवाला है, उसके क्षेत्र की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट वेदना होती है । इस प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गयी है कि सातवीं पृथिवी को छोड़कर नीचे सात राजु मात्र जाकर उसे निगोदों में क्यों नहीं उत्पन्न कराया । इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि निगोदों में उत्पन्न होनेवाले के अतिशय तीव्र वेदना का अभाव होने के कारण शरीर से तिगुणा वेदनासमुद्घात सम्भव नहीं है । इसी कारण से उसे निगोदों में नहीं उत्पन्न कराया गया है । इसी प्रसंग में वहाँ अन्य कुछ शंका-समाधानपूर्वक धवलाकार ने यह स्पष्ट कर दिया कि सत्कर्मप्राभृत में उसे निगोदों में उत्पन्न कराया गया है, क्योंकि नारकियों में उत्पन्न होनेवाले महामत्स्य के समान सूक्ष्मनिगोद जीवों में उत्पन्न होनेवाला महामत्स्य भी तिगुने शरीर के बाहल्य से मारणान्तिकसमुद्घात को प्राप्त होता है । परन्तु यह योग्य नहीं है, क्योंकि प्रचुर असाता से युक्त सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न होनेवाले महामत्स्थ की वेदना और कषाय सूक्ष्मनिगोद जीवों में उत्पन्न होने वाले महामत्स्य की वेदना और कषाय समान नहीं हो सकते । इसलिए इसी अर्थ को ग्रहण करना चाहिए।' यहाँ यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि धवलाकार ले पूर्वोक्त सत्कर्मप्राभृत के उपदेश से अपनी असहमति प्रकट की है। २३. सारसंग्रह — वेदनाखण्ड के प्रारम्भ में प्रस्तुत ग्रन्थ का पूर्वश्रुत से सम्बन्ध प्रकट करते हुए सूत्रकार ने यह कहा है कि अग्रायणीयपूर्व के 'वस्तु' अधिकारों में जो चयनलब्धि नाम का पाँचवाँ 'वस्तु' अधिकार है उसके अन्तर्गत बीस प्राभृतों में चौथे प्राभृत का नाम 'कर्मप्रकृति' है । उसमें कृति - वेदना आदि चौबीस अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं । —सूत्र ४,१,४५ इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने कहा है कि सब ग्रन्थों का अवतार चार प्रकार का होता है- उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय । तदनुसार धवला में यथाक्रम से इन उपक्रम आदि की प्ररूपणा की गयी है । उनमें नय की प्ररूपणा करते हुए उसके प्रसंग में धवला में कहा गया है कि सारसंग्रह में भी पूज्यपाद ने नय का यह लक्षण कहा है "अनन्तपययात्मकस्य वस्तुनोऽअन्यतमपर्यायाधिगमे कर्त्तव्ये जात्यहेत्वपेक्षो निरवद्यप्रयोगो नयः । "12 यहाँ धवलाकार ने आचार्य पूज्यपाद - विरचित जिस सारसंग्रह ग्रन्थ का उल्लेख किया है, वह वर्तमान में उपलब्ध नहीं है तथा उसके विषय में अन्यत्र कहीं से कुछ जानकारी भी नहीं प्राप्त है। आ० पूज्यपाद - विरचित तत्त्वार्थसूत्र की वृत्ति 'सर्वार्थसिद्धि' सुप्रसिद्ध है । उसमें उक्त प्रकार का नय का लक्षण उपलब्ध नहीं होता । वहाँ नय के लक्षण इस प्रकार उपलब्ध होते हैं "प्रगृह्य प्रमाणतः परिणतिविशेषादर्थावधारणं नयः । " - स० स० १-६ "सामान्यलक्षणं तावद् – वस्तुन्यनेकान्तात्मन्यविरोधेन हेत्वर्पणात् साध्यविशेषयाथात्म्यप्रापणप्रवणप्रयोगो नयः ।" स०सि० १- ३३ १. धवला, पु० ११, पृ० २०-२२ २. धवला, पु० ६, पृ० १६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only ग्रन्थोल्लेख / ६०५ www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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