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________________ धवलाकार ने प्रसंग के अनुसार उक्त सन्मतिसूत्र की कुछ अन्य गाथाओं को भी धवला में उद्धत किया है। जैसे (३) उपर्युक्त मंगलविषयक निक्षेप के ही प्रसंग में एक प्राचीन गाथा को उद्धृत करते हुए तदनुसार धवला में यह कहा गया है कि इस वचन के अनुसार किये गये निक्षेप को देखकर नयों का अवतार होता है। प्रसंगवश यहाँ नय के स्वरूप के विषय में पूछने पर एक प्राचीन गाथा के अनुसार यह कहा गया है कि जो द्रव्य को बहुत से गुणों और पर्यायों के आश्रय से एक परिणाम से दूसरे परिणाम में, क्षेत्र से क्षेत्रान्तर में और काल से कालान्तर में अविनष्ट स्वरूप के साथ ले जाता है, उसे नय कहा जाता है। यह नय का निरुक्त लक्षण है। __ आगे इस प्रसंग में यहाँ धवला में द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक नयों के स्वरूप व उनके विषय को विशद करने वाली सन्मतिसूत्र की चार गाथाओं (१,३,५ व ११) को उद्धत किया गया है।' (४) इसी सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में जीवस्थान खण्ड की अवतार-विषयक प्ररूपणा में धवलाकार ने उस अवतार के ये चार भेद निर्दिष्ट किये हैं-उपक्रम, निक्षेप, नय और अनुगम। इनमें उपक्रम पाँच प्रकार का है-आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार। इन सबके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने 'प्रमाण' के प्रसंग में उसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और नय के भेद से पांच प्रकार का कहा है। इनमें नयप्रमाण को वहां नैगम आदि के भेद से सात प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। विकल्प के रूप में आगे वहाँ सन्मतिसत्र की इस गाथा को उद्धृत करके यह कह दिया है कि 'क्योंकि ऐसा वचन है जावदिया बयणवहा तावदिया चेव होंति णयवादा । जावदिया णयवादा तावदिया चेव परसमया ॥१-४७॥ (५) इसी प्रसंग में आगे धवला में उपसंहार के रूप में यह कहा गया है कि इस प्रकार से संक्षेप में ये नय सात प्रकार के हैं, अवान्तर भेद से वे असंख्यात हैं। व्यवहर्ताओं को उन नयों को अवश्य समझ लेना चाहिए, क्योंकि उनके समझे बिना अर्थ के व्याख्यान का ज्ञान नहीं हो सकता है। ऐसा कहते हुए वहाँ आगे धवला में 'उक्तं च' इस निर्देश के साथ ये दो गाथाएँ उद्धृत की गयी हैं णत्थि णएहि विहणं सुत्तं अत्थो व्व जिणवरमदम्मि । तो णयवादे णिउणा मुणिणो सिद्धतिया होति ॥ तम्हा अहिगयसुत्तेण अत्थसंपायणम्हि जइयव्वं । अस्थगई वि य णयवादगहणलीणा दुरहियम्मा ॥ इनमें प्रथम गाथा किंचित् परिवर्तित रूप में आवश्यकनियुक्ति की इस गाथा से प्रायः शब्दशः समान है । अभिप्राय में दोनों में कुछ भेद नहीं है---- १. धवला पु० १, पृ० ११-१३ २. धवला पु० १, पृ०८० ३. धवला पु० १, पृ० ६१ ६०२/ षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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