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________________ इस प्रसंग में धवलाकार ने गुरु के उपदेशानुसार तिर्यग्लोक का प्रमाण एक राज विष्कम्भवाला, सात राजु आयत और एक लाख योजन बाहल्यवाला कहा है। आगे, पूर्व के समान, उन्होंने यहां भी यह स्पष्ट कर दिया है कि जो आचार्य उस तिर्यग्लोक को एक लाख योजन बाहत्य वाला और एक राजु विस्तृत झालर के समान (गोल) कहते हैं उनके अभिमतानुसार मारणान्तिक क्षेत्र और उपपाद क्षेत्र तिर्यग्लोक से साधिक ठहरते हैं। पर वह घटित नहीं होता, क्योंकि उनके इस उपदेश के अनुसार लोक में तीन सौ तेतालीस घनराजु की उत्पत्ति नहीं बनती। वे उतने धनराजु असिद्ध नहीं हैं, क्योंकि वे "सात से गुणित राजु-प्रमाण जगश्रेणि, जगश्रेणि का वर्ग जगप्रतर और जगश्रेणि से गुणित जगप्रतर प्रमाणलोक (१४७४७४७ = ३४३) होता है" इस समस्त आचार्य-सम्मत परिकर्म से सिद्ध है।' (११) वेदनाखण्ड के अन्तर्गत 'कृति' अनुयोग द्वार के प्रारम्भ में आचार्य भूतबलि ने विस्तृत मंगल किया है। उस प्रसंग में उन्होंने बीजबुद्धि ऋद्धि के धारकों को भी नमस्कार किया है। -सूत्र ४, १, ७ उसकी व्याख्या में धवलाकार ने बीजबुद्धि के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए यह कहा है कि जो बुद्धि संख्यात पदों के अनन्त अर्थ से सम्बद्ध अनन्त लिंगों के आश्रय से बीजपद को जानती है, उसे बीजबुद्धि कहा जाता है । इस पर वहाँ यह शंका की गयी है कि बीजबुद्धि अनन्त अर्थ से सम्बद्ध अनन्त लिंगों से युक्त बीजपद को नहीं जानती है, क्योंकि वह क्षायोपशमिक है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि ऐसा नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार क्षायोपशमिक परोक्षश्रुतज्ञान केवलज्ञान के विषयभूत अनन्त पदार्थों को परोक्ष रूप से ग्रहण करता है, उसी प्रकार मतिज्ञान भी सामान्य रूप से अनन्त पदार्थों को ग्रहण करता है, इसमें कुछ विरोध नहीं है। इस पर यहाँ पुनः यह शंका की गयी है कि यदि श्रुतज्ञान का विषय अनन्त संख्या है तो परिकर्म में जो यह कहा गया है कि चौदह पूर्वो के धारक का विषय उत्कृष्ट संख्यात है, वह कैसे घटित होगा। इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि यह कुछ दोष नहीं है, क्योंकि चतुर्दशपूर्वी उत्कृष्ट संख्यात को ही जानता है, ऐसा वहाँ नियम निर्धारित नहीं किया गया है। धवलाकार का यह समाधान उनको समन्वयात्मक बुद्धि का परिचायक है। (१२) वेदना-द्रव्यविधान-चूलिका में योगस्थानगत स्पर्धकों के अल्पबहुत्व के प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गई है कि जघन्य स्पर्धक के अविभागप्रतिच्छेदों का जघन्य योगस्थान १ धवला, पु० ७, पृ० ३७१-७२ २. जदि सुदणाणिस्स विसओ अणंतसंखा होदि तो जमुक्कस्ससंखेनं विसओ चोद्दस्सपुन्वि स्सेत्ति परियम्मे उत्तं तं कधं घडदे ?-धवला, पु. ६, पृ०५६ । अइया जं संखाणं पंचिंदियविसनो तं संखेज्जं णाम । तदो उवरि जं ओहिणाणविसओ तमसंखेज्ज णाम । तदो उवरि जं केवलणाणस्सेव विसओ तमणतं णाम । -धवला, पु० ३, पृ० २६७-६८ त (अजहण्णमणुक्कस्ससंखेज्जयं) कस्स विसओ? चोद्दस पुव्विस्स । ति०प० १, पृ० १८०; अजहण्णमक्कस्सासंखेज्जासंखेज्जयं कस्स विसओ? ओधिणाणिस्स । ति०प० १, पृ० १८२; अजहण्णमणुक्कस्स अणंताणतयं कस्य विसओ? केवलणाणिस्स । ति० ५० १, पृ० १८३ ३. धवला पु० ६, ५५-५७ (इसके पूर्व पृ० ४८ पर भी परिकर्म का एक उल्लेख द्रष्टव्य है) ५९२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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