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________________ दस" आदि गाथा को उद्धृत करते हुए कहा है कि वह इस 'णिरयाउबंधसुत्त' से जाना जाता है । ' १०. तत्त्वार्थ सूत्र - धवलाकार ने इसका उल्लेख तच्चट्ठ, तच्चत्थ तचत्थसुत्त और तत्त्वार्थसूत्र इन नामों के निर्देशपूर्वक किया है । यथा— तच्चट्ठ - जीवस्थान - चूलिका में प्रथम सम्यक्त्व कहाँ किन बाह्य कारणों से उत्पन्न होता है, इसका विचार किया गया | वहाँ मनुष्यगति के प्रसंग में सूत्रकार द्वारा उसके उत्पादक तीन कारणों का निर्देश किया गया है— जातिस्मरण, धर्मश्रवण और जिनबिम्बदर्शन । --सूत्र १, ६-६, २६-३० इस प्रसंग को स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि तच्चट्ठ में नैसर्गिक – स्वभावतः उत्पन्न होनेवाला भी - प्रथम सम्यक्त्व कहा गया है। उसे भी यहीं पर देखना चाहिए अर्थात् वह भी इन्हीं कारणों से उत्पन्न होता है; यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि जाति-स्मरण और जिनबिम्ब-दर्शन के बिना उत्पन्न होनेवाला नैसर्गिक प्रथम सम्यक्त्व सम्भव नहीं है । नैसर्गिक का अभिप्राय इतना ही समझना चाहिए कि वह दर्शनमोह के उपशम आदि के होने पर परोपदेश के बिना उत्पन्न होता है । तच्चत्थ-बन्धन अनुयोगद्वार में सूत्रकार द्वारा अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं- औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध और क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध । —सूत्र ५, ६ १६ इसकी व्याख्या के प्रसंग में धवलाकार ने प्रसंग प्राप्त एक शंका के समाधान में जीवभाव ( जीवत्व) को औदयिक सिद्ध किया है। आगे उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि तच्चत्थ में जो जीवभाव को पारिणामिक कहा गया है वह प्राण धारण की अपेक्षा नहीं कहा गया है, किन्तु चैतन्य का अवलम्बन लेकर वहाँ उसे पारिणामिक कहा गया है | इसी प्रसंग में आगे धवलाकार ने भव्यत्व और अभव्यत्व को भी विपाकप्रत्ययिक कहा है । यहाँ यह शंका उठायी गयी है कि तच्चत्थ (२-७) में तो उन्हें पारिणामिक कहा गया है, उसके साथ विरोध कैसे न होगा । इसका समाधान करते हुए धवलाकार ने कहा है कि असिद्धत्व की अनादि-अनन्तता और अनादि- सान्तता का कोई कारण नहीं है, इसी अपेक्षा से उन अभव्यत्द और भव्यत्व को वहाँ पारिणामिक कहा गया है, इससे उसके साथ विरोध होना सम्भव नहीं है । तच्चत्थसुत्त --- जीवस्थान - कालानुगम अनुयोगद्वार में कालविषयक निक्षेप के प्रसंग में तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यकाल के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने वर्ण- गन्धादि से १. धवला, पु० ४, पृ० ३६०-६१ २. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । तन्निसर्गादधिगमाद्वा । त० सूत्र १, २, ३ ३. धवला, पु०६, पृ० ४३०-३१ ४. तस्मिन् सति यद् बाह्योपदेशादृते प्रादुर्भवति तन्नैसर्गिकम् । - स० स० १-३ ५. जीव - भव्याभव्यत्वानि च । त० सू० २-७ ६. धवला, पु० १४, पृ० १३ ५८६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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